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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् ष्ठल
(२) आकर्षात् ष्ठल।६। प०वि०-आकर्षात् ५।१ ष्ठल् १।१ । अनु०-तेन, चरति इति चानुवर्तते। अन्वय:-तेन आकर्षातच्चरति ष्ठल।
अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थाद् आकर्षशब्दात् प्रातिपदिकाच्चरतीत्यस्मिन्नर्थे ष्ठल् प्रत्ययो भवति।
उदा०-आकर्षेण चरति आकर्षिक: । स्त्री चेत्-आकर्षिकी।
आर्यभाषा: अर्थ-तिन) तृतीया-समर्थ (आकर्षात्) आकर्ष प्रातिपदिक से (चरति) चरति-घूमता है अर्थ में (ष्ठल्) ष्ठल् प्रत्यय होता है।
उदा०-आकर्ष (सुवर्ण-कसौटी) लेकर जो घूमता है वह-आकर्षिक। यदि स्त्री है तो-आकर्षिकी।
सिद्धि-आकर्षिक: । आकर्ष+टा+ष्ठल् । आकर्ष+इक । आकर्षिक+सु। आकर्षिकः ।
यहां तृतीया-समर्थ 'आकर्ष' शब्द से चरति (घूमता है) अर्थ में इस सूत्र से 'ष्ठल' प्रत्यय है। पूर्ववत् ह' के स्थान में 'इक्’ आदेश और अंग के अकार का लोप होता है।
प्रत्यय के षित् होने से स्त्रीत्व-विवक्षा में षिद्गौरादिभ्यश्च' (४।१।४१) से डीप् प्रत्यय होता है-आकर्षिकी। प्रत्यय के लित् होने से लिति' (६।१।१९०) से प्रत्यय का पूर्ववर्ती अच् उदात्त होता है-आकर्षिकः ।
विशेष: सुवर्ण की परीक्षा के लिये जो निकष-उपल (कसौटी) होता है उसे 'आकर्ष' कहते हैं। आकृष्यते स्वर्ण यत्रेति आकर्षः । जो उसे लेकर सुवर्ण आदि खरीदने के लिए घर-घर घूमता है उसे अकर्षिक कहते हैं। यदि स्त्री है तो वह आकर्षिकी' कहाती है। यह पाणिनि-कालीन समाज का एक चित्रण है। ष्ठन्
(३) पर्पादिभ्यः ष्ठन्।१०। प०वि०-पर्प-आदिभ्य: ५ ।३ ष्ठन् १।१। स०-पर्प आदिर्येषां ते पर्यादयः, तेभ्य:-पर्पादिभ्यः (बहुव्रीहि:) अनु०-तेन, चरति इति चानुवर्तते। अन्वय:-तेन पर्पादिभ्यश्चरति ष्ठन्।
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