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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थाद् गोपुच्छशब्दात् प्रातिपदिकात् तरतीत्यस्मिन्नर्थे ठञ् प्रत्ययो भवति।
उदा०-गोपुच्छेन तरति-गौपुच्छिकः ।
आर्यभाषा: अर्थ-तिन) तृतीया-समर्थ (गोपुच्छात्) गोपुच्छ प्रातिपदिक से (तरति) तरति अर्थ में (ठक्) ठञ् प्रत्यय होता है।
उदा०-गोपुच्छ (गौ की पूंछ/वानर-विशेष) से जो तैरता है वह-गौपुच्छिक । सिद्धि-गौपुच्छिकः । गोपुच्छ+टा+ठञ् । गौपुच्छ्+इक । गौपुच्छिक सु। गौपुच्छिकः ।
यहां तृतीया-समर्थ गोपुच्छ' शब्द से तरति अर्थ में इस सूत्र से ठञ्' प्रत्यय होता है। यह ठक्' प्रत्यय का अपवाद है। पूर्ववत् ' के स्थान में इक्’ आदेश, अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। नित्यादिर्नित्यम्' (६।४।९४) से पद का आयुदात्त स्वर होता है-गौपुच्छिकः ।
ठन्
(३) नौव्यचष्ठन्।७। प०वि०-नौ-द्व्यच: ५।१ ठन् ११ ।
स०-द्वावचौ यस्मिँस्तत् व्यच् । नौश्च व्यच् च एतयो: समाहारो नौद्यच्, तस्मात्-नौद्यच: (बहुव्रीहिगर्भितसमाहारद्वन्द्व:)।
अनु०-तेन, तरति इति चानुवर्तते। अन्वय:-तेन नौद्यचस्तरति ठन्।
अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थाद् नौशब्दाद् व्यचश्च प्रातिपदिकात् तरतीत्यस्मिन्नर्थे ठन् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-(नौ:) नावा तरति-नाविकः । (व्यच) घटेन तरति-घटिकः । प्लवेन तरति-प्लविक: । बाहुभ्यां तरति-बाहुकः ।
आर्यभाषा: अर्थ-तिन) तृतीया-समर्थ (नौद्वयच:) नौ शब्द और दो अचोंवाले प्रातिपदिक से (तरति) तरति अर्थ में (उन्) ठन् प्रत्यय होता है।
उदा०-(नौ) नौ (नौका) से जो तैरता है वह-नाविक। (व्यच) घट (घड़ा) से जो तैरता है वह-घटिक। प्लव (नाव) से जो तैरता है वह-प्लविक । बाहु (भुजाओं) से जो तैरता है वह-बाहुक।
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