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चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः
४२५ सिद्धि-गौकक्षाः। गोकक्ष+डस्+यञ्। गौकक्ष्+य। गौकक्ष्य ।। गौकक्ष्य+अण् । गौकश्+अ । गौकक्ष+सु । गौकक्ष: । गौकक्ष+अण् गौकक्ष+० । गौकक्षः ।
__यहां प्रथम गोकक्ष' शब्द से 'गर्गादिभ्यो यज्ञ (४।१।१०५) से गोत्रापत्य अर्थ में यञ् प्रत्यय होता है। फिर गोत्रप्रत्ययान्त गौकक्ष्य' शब्द से कण्वादिभ्यो गोत्रे (४।२।१११) से प्रोक्त अर्थ में 'अण्' प्रत्यय करने पर 'आपत्यस्य च तद्धितेऽनाति' (६।४।१५१) से पकार का लोप होता है। 'गोकक्ष' शब्द से तदधीते तद्वेद' (४।२।५९) से अध्येता-वेदिता अर्थ में 'अण' प्रत्यय होता है किन्तु प्रोक्ताल्लुक्' से उस 'अण्' प्रत्यय का लोप हो जाता है। गौकक्ष्य' शब्द से गोत्रप्रत्ययान्त होने से गोत्रचरणाद् वु (४।३।१२६) से प्राप्त 'वुञ्' प्रत्यय का प्रतिषेध होने पर कण्वादिभ्यो गोत्रे (४।२।१११) से विहित 'अण्' प्रत्यय अवशिष्ट रह जाता है।
(२) दाक्षाः । दक्ष+इञ् । दाक्ष्+इ। दाक्षि+अण् । दाक्ष्+अ। दाक्ष+जस् । दाक्षाः ।
यहां प्रथम दक्ष' शब्द से गोत्रापत्य अर्थ में 'अत इञ्' (४।१।९५) से 'इञ्' प्रत्यय होता है। 'गोत्रचरणाद् वु' (४।३।१२६) से प्राप्त वुञ् प्रत्यय का इस सूत्र से प्रतिषेध होने पर इनश्च' (४।२।११२) से 'अण्' प्रत्यय होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-माहकाः।
विशेष: (१) दण्डमाणव। छोटी श्रेणियों के छात्रों को दण्डमाणव कहते थे। तत्त्वबोधिनी के अनुसार दण्डमाणव' वह कहलाता था जिसका अभी उपनयन संस्कार न हुआ हो। काशिका के अनुसार पलाश आदि का दण्ड धारण करनेवाले छात्रों को 'दण्डमाणव' कहते थे (दण्डप्रधाना माणवा: दण्डमाणवा:-काशिका)। वे अपना डंडा लिये हुये आश्रम में इधर से उधर फिरते दिखाई देते थे।
(२) अन्तेवासी-जब वेद पढ़ने का समय आता तो आचार्य उस 'माणव' का उपनयन-संस्कार करते थे। इस संस्कार के बाद वह 'माणव' सच्चे अर्थों में आचार्य का सामीप्य प्राप्त करता था। मनसा, वाचा, कर्मणा आचार्य के समीप पहुंचा हुआ ब्रह्मचारी 'अन्तेवासी' इस अन्वितार्थ पदवी को धारण करता था (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० २७६)।
छ:
(११) रैवतिकादिभ्यश्छः ।१३१। प०वि०-रैवतिक-आदिभ्य: ५।३ छ: १।१।
स०-रैवतिक आदिर्येषां ते रैवतिकादयः, तेभ्य:-रैवतिकादिभ्यः (बहुव्रीहि:)।
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