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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (४) बढच-बढच ऋग्वेद का अत्यन्त प्रसिद्ध चरण था। पतञ्जलि के 'एकविंशतिधा बाढच्यम्' वचन से विदित होता है कि बढ्चों के २१ भेद वा शाखायें थीं।
(५) नटसूत्र-यह नटों से सम्बन्धित कोई ग्रन्थ था। यहां उसका चरणवाची छन्दोग' आदि के साथ पाठ होने से विदित होता है कि उस नाट्यग्रन्थ की आम्नाय (छन्दोग्रन्थ) के समान प्रतिष्ठा थी। वुञ्-प्रतिषेधः
(१०) न दण्डमाणवान्तेवासिषु।१३०। प०वि०-न अव्ययपदम्, दण्डमाणवान्तेवासिषु ७।३ ।
स०-दण्डप्रधाना माणवा दण्डमाणवा:। 'मयूरव्यंसकादयश्च' (२।१।७२) इति मध्यमपदलोपिसमास: । दण्डमाणवाश्च अन्तेवासिनश्च ते दण्डमाणवान्तेवासिनः, तेषु-दण्डमाणवान्तेवासिषु (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
अनु०-'गोत्रचरणाद् वुञ्' (४।३।१२६) इत्यतो गोत्रग्रहणमिहानुवर्तते।
अन्वय:-तस्य गोत्राद् इदं वुञ् न दण्डमाणवान्तेवासिषु।
अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थाद् गोत्रवाचिन: प्रातिपदिकाद् इत्यस्मिन्नर्थे वुञ् प्रत्ययो न भवति। दण्डमाणवान्तेवासिष्वभिधेयेषु।।
उदा०-गोकक्षस्य गोत्रापत्यम्-गौकक्ष्यः। गौकक्ष्येण प्रोक्तम्गौकक्षम्। गौकक्षम् अधीयते-गौकक्षा दण्डमाणवा:, अन्तेवासिनो वा। दाक्षका: । माहकाः।
आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ (गोत्रात्) गोत्रवाची प्रातिपदिक से (इदम्) यह अर्थ में (वुञ्) वुञ् प्रत्यय नहीं होता है (दण्डमाणवान्तेवासिषु) यदि वहां दण्डमाणव और अन्तेवासी अर्थ अभिधेय हो।
उदा०-गोकक्ष का गोत्रापत्य-गौकक्ष्य कहाता है। गौकक्ष्य आचार्य के द्वारा प्रोक्त ग्रन्थ-गौकक्ष। गौकक्ष के अध्येता (छात्र)-गौकक्ष, दण्डमाणव/अन्तेवासी (शिष्य)। दक्ष का गोत्रापत्य-दाक्षि। दाक्षि आचार्य के द्वारा प्रोक्त ग्रन्थ-दाक्ष। दाक्ष ग्रन्थ के अध्येता-दाक्ष, दण्डमाणव/अन्तेवासी। महक का गोत्रापत्य-माहकि। माहकि आचार्य के द्वारा प्रोक्त ग्रन्थ-माहक। माहक ग्रन्थ के अध्येता-माहक, दण्डमाणव/अन्तेवासी।
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