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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् ९. आख्यातम् षष्ठी-आख्यातस्य व्याख्यानो आख्यात का व्याख्यान ग्रन्थ
ग्रन्थ आख्यातिकः। आख्यातिक। सप्तमी-आख्याते भवम् आख्यात में होनेवालाआख्यातिकम्।
आख्यातिक (कार्य)। १०. नामाख्यातम् षष्ठी-नामाख्यातयोर्व्याख्यानो नाम-आख्यातों का व्याख्यान
ग्रन्थो नामाख्यातिकः। ग्रन्थ-नामाख्यातिक। सप्तमी-नामाख्यातेषु भवं नाम-आख्यातों में होनेवाला
नामाख्यातिकम्। नामाख्यातिक (कार्य)। आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ और (तत्र) सप्तमी-समर्थ (व्याख्यातव्यनाम्नः) व्याख्यातव्य-नामवाची (वयच्आख्यातात्) द्वि-अच् वाले, ऋकारान्त, ब्राह्मण, ऋक्, प्रथम, अध्वर, पुरश्चरण, नाम, आख्यात (नामाख्यात) प्रातिपदिकों से (व्याख्याने) व्याख्यान (च) और (भव:) भव (इति) इस अर्थ में (ठक्) ठक् प्रत्यय होता है।
उदा०-उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृत-भाग में देख लेवें। सिद्धि-ऐष्टिकः । इष्टि+डस्/डि+ठक् । ऐष्ट्+इक । ऐष्टिक+सु । ऐष्टिकः ।
यहां षष्ठी/सप्तमी समर्थ, व्याख्यतव्यनामवाची 'इष्टि' शब्द से व्याख्यान/भव अर्थ में इस सूत्र से ठक्' प्रत्यय है। पूर्ववत् ' के स्थान में 'इक्’ आदेश और अंग को आदिवृद्धि और अंग के इकार का लोप होता है।
विशेष: (१) इष्टि-पक्षेष्टि आदि यज्ञ 'इष्टि' कहाते हैं।
(२) ऋक्, यजु, साम, अथर्व इन चार वेदों के यथासंख्य ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ ये चार ब्राह्मण ग्रन्थ हैं।
(३) प्रथम' शब्द का अर्थ ईश्वर है। “सब कार्यों से पहले वर्तमान और सबका मुख्य कारण" {ईश्वर) (महर्षिदयानन्दकृत आर्याभिविनय १।४०)।
(४) आचार्य यास्क ने अध्वर के निर्वचन में लिखा है-'ध्वरति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधः' अध्वर शब्द यज्ञ का वाचक है और यह शब्द यज्ञों में स्वयं ही पशु-हिंसा का प्रतिषेधक है।
(५) पुरश्चरण-किसी देवता के नाम का जप और उसके उद्देश्य से यज्ञ करना पुरश्चरण' कहाता है।
(६) नाम और आख्यात प्रातिपदिकों से विगृहीत तथा समस्त दोनों अवस्थाओं में यह प्रत्यय विधि की जाती है। महर्षि दयानन्द ने नामों के व्याख्यान में नामिक' और आख्यातों के व्याख्यान में 'आख्यातिक' नामक ग्रन्थों की रचना की है।
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