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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् वाजपेयिकं कर्म। राजसूयिकं कर्म। (यज्ञ:) षष्ठी-पाकयज्ञस्य व्याख्यानो ग्रन्थ: पाकयज्ञिक: । नवयज्ञस्य व्याख्यानो ग्रन्थो नावयज्ञिकः । सप्तमीपाकयज्ञे भवं पाकयज्ञिकं कर्म। नवयज्ञे भवं नावयज्ञिकं कर्म।
आर्यभाषा: अर्थ- (तस्य) षष्ठी-समर्थ और (तत्र) सप्तमी-समर्थ (व्याख्यातव्यनाम्न:) व्याख्यातव्य-नामवाची (क्रतुयज्ञेभ्य:) क्रतुविशेष और यज्ञविशेषवाची प्रातिपदिकों से (च) भी यथासंख्य (व्याख्याने) व्याख्यान (च) और (भव:) भव (इति) इस अर्थ में (ठञ्) ठञ् प्रत्यय होता है।
उदा०-(क्रतु) षष्ठी-अग्निष्टोम का व्याख्यान ग्रन्थ-आग्निष्टोमिक । वाजपेय का व्याख्यान ग्रन्थ-वाजपेयिक। राजसूय का व्याख्यान ग्रन्थ-राजसूयिक। सप्तमी-अग्निष्टोम में होनेवाला-आग्निष्टोमिक कर्म। वाजपेय में होनेवाला-वाजपेयिक कर्म। राजसूय में होनेवाला-राजसूयिक कर्म। (यज्ञ) षष्ठी-पाकयज्ञ का व्याख्यान ग्रन्थ-पाकयज्ञिक । नवयज्ञ का व्याख्यान ग्रन्थ-नावयज्ञिक । सप्तमी-पाकयज्ञ में होनेवाला-पाकयज्ञिक कर्म। नवयज्ञ में होनेवाला-नावयज्ञिक कर्म।
सिद्धि-आग्निष्टोमिकः । अग्निष्टोम+डस्+ठञ् । आग्निष्टोम्+इक। आग्निष्टोमिक+सु । आग्निष्टोमिकः ।
यहां षष्ठी-समर्थ, व्याख्यातव्य-नाम, ऋतुविशेषवाची 'अग्निष्टोम' शब्द से व्याख्यान अर्थ में इस सूत्र से ठञ्' प्रत्यय है। पूर्ववत् ' के स्थान में इक् आदेश, अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही वाजपेयिकः' आदि।
विशेष: (१) ऋतु और यज्ञ दोनों ही शब्द याग के वाचक हैं किन्तु जिस याग में सोमपान किया जाता है उसे 'क्रतु' कहते हैं और सोमपान रहित याग को यज्ञ' कहा जाता है। अत: सूत्रपाठ में क्रतु' और यज्ञ' दोनों शब्दों का पाठ किया गया है।
(२) अग्निष्टोम-जिस क्रतु-सोमयाग में अग्निदेवता की स्तुति (स्तोम) किया जाता है उसे 'अग्निष्टोम' याग कहते हैं।
(३) वाजपेय-जिस ऋतु में वाजयवागूविशेष का पान किया जाता है उसे 'वाजपेय' याग कहते हैं।
(४) राजसूय-जिस ऋतु में राजा का चयन किया जाता है उसे 'राजसूय' याग कहते हैं। सूय-उत्पत्ति।
(५) पाकयज्ञ-यहां पाक शब्द अल्प का पर्यायवाची है। लघु यज्ञ को 'पाकयज्ञ' कहते हैं।
(६) नवयज्ञ-नवीन व्रीहि (धान्य) से जो यज्ञ किया जाता है उसे नवयज्ञ' कहते हैं।
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