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________________ चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः ३४५ (२) प्रैष्मम् । ग्रीष्म+डि+अण् । ग्रैष्म+अ। ग्रैष्म+सु। ग्रैष्मम्। यहां सप्तमी-समर्थ, कालविशेषवाची 'ग्रीष्म' शब्द से विकल्प पक्ष में 'सन्धिवेलातुनक्षत्रेभ्योऽण् (४।३।१६) से 'ऋतु-अण्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-वासन्तकम्, वासन्तम् । देयार्थप्रत्ययप्रकरणम् यथाविहितं प्रत्यय: (१) देयमृणे।४७। प०वि०-देयम् ११ ऋणे ७।१। अनु०-तत्र, कालाद् इति चानुवर्तते। अन्वय:-तत्र कालाद् देयं यथाविहितं प्रत्यय ऋणे। अर्थ:-तत्र इति सप्तमीविभक्तिसमर्थात् कालविशेषवाचिन: प्रातिपदिकाद् देयमित्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति, यद् देयमृणं चेत् तद् भवति। ___उदा०-मासे देयमृणं मासिकम् । अर्धमासे देयमृणम् आर्धमासिकम्। संवत्सरे देयमृणं सांवत्सरिकम् । आर्यभाषा: अर्थ-(तत्र) सप्तमी-विभक्ति-समर्थ (कालात्) कालविशेषवाची प्रातिपदिक से दियम्) देय अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है (ऋणे) यदि जो देय है, वह ऋण हो। उदा०-एक मास में देय ऋण-मासिक। अर्धमास में देय ऋण-आर्धमासिक। संवत्सर में देय ऋण-सांवत्सरिक (वार्षिक)। सिद्धि-मासिकम् । मास+डि+ठञ् । मास्+इक। मासिक+सु। मासिकम्। यहां सप्तमी-समर्थ, कालविशेषवाची 'मास' शब्द से देय (ऋण) अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्रत्यय का विधान किया गया है। यहां कालाठ्ठञ् (४।३।११) से यथाविहित ठञ्' प्रत्यय होता है। ठस्येकः' (७।३।५०) से 'ह' के स्थान में इक्' आदेश और पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि तथा अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-आर्धमासिकम्, सांवत्सरिकम् । वुन् (२) कलाप्यश्वत्थयवबुसाद् वुन्।४८। प०वि०-कलापि-अश्वत्थ-यवबुसात् ५।१ वुन् १।१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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