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चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः आर्यभाषा: अर्थ-यथसम्भव-विभक्ति-समर्थ (दिक्पूर्वपदात्) दिशावाची पूर्वपदवान् (ग्रामजनपदैकदेशात्) ग्राम-एकदेशवाची और जनपद-एकदेशवाची (अर्धात्) अर्ध प्रातिपदिक से (शेषे) शेष अर्थों में (अञ्ठौ ) अञ् और ठञ् प्रत्यय होते हैं।
उदा०-इमे खल्वस्माकं प्रामस्य जनपदस्य वा पौर्वार्धा: (अ) । पौर्वाधिका: (ठ)। ये लोग हमारे गांव के वा जनपद-राज्य के पूर्व दिशा के अर्धभाग में रहनेवाले-पौर्वार्ध, पौर्वाधिक। दाक्षिणार्धा: (अ)। दाक्षिणार्धिका: (ठ)। ये लोग हमारे गांव के वा जनपद राज्य की दक्षिण दिशा के अर्धभाग में रहनेवाले-दाक्षिणार्ध, दाक्षिणार्धिक।
सिद्धि-(१) पौर्वार्धा: । पूर्व+अर्ध+डि+अञ् । पौर्वार्ध+अ । पौवार्ध+जस् । पौर्वार्धाः ।
यहां सप्तमी-समर्थ, दिशावाची पूर्व शब्द पूर्वक, ग्राम वा जनपद के वाचक 'अर्ध' शब्द से शेष अर्थों में इस सूत्र से 'अन्' प्रत्यय है। तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही-दाक्षिणार्धाः ।
(२) पौर्वाधिकाः । यहां पूर्वोक्त पूर्वार्ध' शब्द से पूर्ववत् ठञ्' प्रत्यय है। ठस्येकः' (७/३ १५०) से ह' के स्थान में 'इक्' आदेश तथा पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही-दाक्षिणार्धिकाः ।
म:
(६२) मध्यान्मः।८। प०वि०-मध्यात् ५।१ म: १।१। अनु०-शेषे इत्यनुवर्तते। अन्वय:-यथासम्भव०मध्यात् शेषे मः।
अर्थ:-यथासम्भवविभक्तिसमर्थाद् मध्यात् प्रातिपदिकात् शेषेष्वर्थेषु म: प्रत्ययो भवति।
उदा०-मध्ये भवो मध्यमः।
आर्यभाषा: अर्थ-यथासम्भव-विभक्ति-समर्थ (मध्यात्) मध्य प्रातिपदिक से (शेषे) शेष अर्थों में (म:) म प्रत्यय होता है।
उदा०-मध्ये भवो मध्यमः । मध्य में होनेवाला-मध्यम। सिद्धि-मध्यमः । मध्य+डि+म। मध्यम+सु। मध्यमः । यहां सप्तमी-समर्थ 'गध्य' शब्द से शेष अर्थों में इस सूत्र से म' प्रत्यय है।
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