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________________ चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः ૨૬૬ विशेष-यहां गहादिगण के शब्दों के प्रत्यय-विधि में यथासम्भव देश-अर्थ का सम्बन्ध होता है, सबके साथ नहीं। छ: (४८) प्राचां कटादेः ।१३८ । प०वि०-प्राचाम् ६।३ कट-आदे: ५।१ । स०-कट आदिर्यस्य स कटादिः, तस्मात्-कटादे: (बहुव्रीहिः) । अनु०-शेषे, देशे, छ इति चानुवर्तते। अन्वय:-यथासम्भव०प्राचां देशे कटादे: शेषे छः। अर्थ:-यथासम्भवविभक्तिसमर्थात् प्राग्देशवाचिन: कटादे: प्रातिपदिकत्ि शेषेष्वर्थेषु छ: प्रत्ययो भवति। उदा०-कटनगरे जात: कटनगरीय: । कटघोषे जात: कटघोषीय: । कटपल्वले जात: कटपल्वलीय: । आर्यभाषा: अर्थ-यथासम्भव-विभक्ति-समर्थ (प्राचां देशे) प्राक्देशवाची (कटादे:) कट-आदिमान् प्रातिपदिक से (शेषे) शेष अर्थों में (छ:) छ प्रत्यय होता है। उदा०-कटनगरे जात: कटनगरीयः। प्राक्-देशीय कटनगर में उत्पन्न हुआ-कटनगरीय । कटघोषे जात: कटघोषीयः। प्राक्-देशीय कटघोष' नामक अहीर-गामड़ी में उत्पन्न हुआ-कटघोषीय। कटपल्वले जात: कटपल्वलीय: । प्राक्-देशीय कटपल्वल नामक ग्राम में उत्पन्न हुआ-कटपल्वलीय। सिद्धि-कटनगरीयः। कटनगर+डि+छ। कटनगर+ईय। कटनगरीय+सु । कटनगरीयः। यहां सप्तमी-समर्थ, प्राक्-देशवाची, कट-आदिमान् 'कटनगर' शब्द से शेष अर्थों में इस सूत्र से 'छ' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'छु' के स्थान में 'ईय्' आदेश और 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-कटघोषीय:, कटपल्वलीयः। छः (क:) (४६) राज्ञः क च।१३६ । प०वि०-राज्ञ: ५ ।१ (आदेशविषये ६।१) क ११ (सु-लुक्) च अव्ययपदम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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