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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
आर्यभाषाः अर्थ - यथासम्भव-विभक्ति-समर्थ (देशे) देशवाची (साल्वात्) साल्व प्रातिपदिक से (शेषे) शेष अर्थों में (वुञ् ) वुञ् प्रत्यय होता है (अपदातौ, मनुष्यतत्स्थयोः) यदि वहाँ मनुष्य और पैदल चलना को छोड़कर मनुष्यस्थ क्रिया आदि अर्थ अभिधेय हो । उदा०- - (मनुष्य) साल्वे जात: साल्वको मनुष्यः । साल्व देश में उत्पन्न हुआ- साल्वक मनुष्य । (तत्स्थ) साल्वे जातं साल्वकम् । साल्वकमस्य हसितम् । इस मनुष्य का हंसना साल्वक है अर्थात् साल्वदेशीय मनुष्य जैसा है। साल्वकमस्य जल्पितम् । इस मनुष्य का बोलना साल्वक है अर्थात् साल्वदेशीय मनुष्य जैसा है,
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'अपदाति' का कथन इसलिये है कि यहां 'वुञ्' प्रत्यय न हो- साल्वः पदातिर्गच्छति । यह साल्व देश में उत्पन्न हुआ मनुष्य पैदल जा रहा है। यहां साल्व शब्द का कच्छादि गण में पाठ होने से 'कच्छादिभ्यश्च' (४/२/१३३) से 'अण्' प्रत्यय होता है ।
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सिद्धि- साल्वक: । साल्व+ङि+ वुञ् । साल्व्+अक । साल्वक+सु । साल्वकः । यहां सप्तमी-समर्थ, देशवाची 'साल्व' शब्द से शेष अर्थों में मनुष्य तथा पदाति-वर्जित मनुष्यस्थ क्रिया आदि अभिधेय में इस सूत्र से 'वुञ्' प्रत्यय है । 'युवोरनाक' (७ 1१1१) से 'वु' के स्थान में 'अक' आदेश और 'तद्धितेष्वचामादे:' ( ७ । २ ।११७) से अंग को पर्जन्यवत् आदिवृद्धि होती है।
विशेष- साल्व - जयपुर-बीकानेर प्रदेश का प्राचीन नाम 'साल्व' जनपद
वुञ् -
योगद्वन्द्वः) ।
(४५) गोयवाग्वोश्च । १३५ |
प०वि०- गो- यवाग्वोः ७ । २ च अव्ययपदम् ।
सo - गौश्च यवागूश्च ते गोयवाग्वौ तयोः - गोयवाग्वोः (इतरेतर
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अनु० - शेषे, देशे, वुञ्, साल्वात् इति चानुवर्तते ।
अन्वयः
:- यथासम्भव० देशे साल्वात् शेषे वुञ् गोयवाग्वोश्च । अर्थ:- यथासम्भवविभक्तिसमर्थाद् देशवाचिन: साल्वात् प्रातिपदिकात् शेषेष्वर्थेषु वुञ् प्रत्ययो भवति, गवि यवागवि चार्थेऽभिधेये ।
उदा०- (गौ:) साल्वे जात: साल्वको गौ: । ( यवागूः) साल्वे जाता साल्विका यवागूः ।
आर्यभाषाः अर्थ - यथासम्भव- विभक्ति-समर्थ (देशे ) देशवाची (साल्वात्) साल्व प्रातिपदिक से (शेषे) शेष अर्थों में (वुञ् ) वुञ् प्रत्यय होता है (गोयवाग्वो:) यदि वहां गौ: = बैल और यवागू = लापसी (राबड़ी) अर्थ (च) भी अभिधेय हो ।
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