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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-(प्राच्यगोत्र) पिङ्गस्य गोत्रापत्यं पैङ्गिः । पैङ्गेश्छात्रा: पैङ्गीयाः । पिङ्ग ऋषि का पौत्र-पैङ्गि। पैङ्गि के शिष्य-पैङ्गीय। ऐसे ही-प्रौष्ठीय, चैदीय, पौष्कीय। (भरतगोत्र) काशस्य गोत्रापत्यं काशि:। काशेश्छात्रा: काशीया:। काश ऋषि का पौत्र-काशि। काशि के शिष्य-काशीय। ऐसे ही-पाशीय।
सिद्धि-पैङ्गीया: । पिङ्ग+डस्+इञ् । पैग्+इ। पैङ्गि।। पैङ्गि+डस्+छ। पैङ्ग्+ईय। पैगीय+जस्। पैङ्गीयाः।
यहां प्रथम षष्ठी-समर्थ प्राच्य गोत्रवाची, दो अचोंवाले 'पिङ्ग' शब्द से गोत्रापत्य अर्थ में 'अत इ' (४।१।९५) से इञ् प्रत्यय होता है। तत्पश्चात् गोत्र-प्रत्ययान्त पैङ्गि' शब्द से शेष अर्थों में इस सूत्र से 'अण्' प्रत्यय का प्रतिषेध होने से वृद्धाच्छ:' (४।२।११४) से छ' प्रत्यय होता है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'छ्' के स्थान में 'ईय्' आदेश और 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के इकार का लोप होता है। ऐसे ही-प्रौष्ठीया:' आदि।
विशेष-(१) भरतगोत्र प्राच्यगोत्र के ही अन्तर्गत है फिर यहां 'भरतगोत्र' के ग्रहण से यह ज्ञापित होता है कि अन्यत्र प्राच्य गोत्र के ग्रहण से भरतगोत्र का ग्रहण नहीं किया जाता है।
(२) प्राच्यभरत-दक्षिण-पूर्वी पंजाब में-थानेश्वर, कैथल, करनाल, पानीपत का भू-भाग भरत जनपद था। इसी का दूसरा नाम प्राच्यभरत भी था क्योंकि यहीं से देश के उदीच्य और प्राच्य इन दो खण्डों की सीमायें बंट जाती थी (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ४१)। छ:
... (२३) वृद्धाच्छः।।११३। प०वि०-वृद्धात् ५।१ छ: १।१। अनु०-'गोत्रे' इति नानुवर्तते, शेषे इति चानुवर्तते । अन्वय:-यथासम्भव०वृद्धात् शेषे छः।
अर्थ:-यथासम्भवविभक्तिसमर्थाद् वृद्धसंज्ञकात् प्रातिपदिकात् शेषेष्वर्थेषु छ: प्रत्ययो भवति।
उदा०-गाठस्य छात्रो गार्गीय: । वात्स्यस्य छात्रो वात्सीय: । शालायां भव: शालीय: । मालायां भवो मालीयः ।
आर्यभाषा: अर्थ-यथासम्भव-विभक्ति-समर्थ (वृद्धात्) वृद्धसंज्ञक प्रातिपदिक से (शेषे) शेष अर्थों में (छ:) प्रत्यय होता है।
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