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चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः विशेष-सिन्धु की पच्छिमी सहायक नदी कुर्रम के किनारे निचले हिस्से में 'बन्नू' की दून है। इसका वैदिक नाम क्रम' था। इसका ऊपरी पहाड़ी प्रदेश आज भी कुर्रम कहलाता है और निचला मैदानी भाग बन्नू। पाणिनि ने इसी को वर्णनद के नाम से प्रसिद्ध वर्गु देश कहा है (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ५१)। त्यप्
(१३) अव्ययात् त्यप्।१०३। प०वि०-अव्ययात् ५।१ त्यप् १।१ । अनु०-शेषे इत्यनुवर्तते। अन्वय:-यथासम्भव०अव्ययात् शेषे त्यप् ।
अर्थ:-यथासम्भवविभक्तिसमर्थाद् अव्ययात् प्रातिपदिकात् शेषेष्वर्थेषु त्यप् प्रत्ययो भवति।
“अमेहक्वतसित्रेभ्यस्त्यविधिर्योऽव्ययात् स्मृतः” ।
उदा०-(अम:) अमा भवोऽमात्यः । (इह) इह भव इहत्य: । (क्व) क्व भव: क्वत्यः । (तसि:) इतो भव इतस्त्यः । (त्र:) तत्र भवस्तत्रत्यः । पत्र भवो यत्रत्य: ।
आर्यभाषा: अर्थ-यथासम्भव विभक्ति-समर्थ (अव्ययात्) अव्यय-संज्ञक प्रातिपदिक से (शेषे) शेष अर्थों में (त्यप्) त्यप् प्रत्यय होता है।
यहां अव्यय से विधान किया गया त्यप् प्रत्यय, अमा, इह, क्व, तसि-प्रत्ययान्त और त्रल्-प्रत्ययान्त शब्दों से किया जाता है।
उदा०-(अमा) अमा भवोऽमात्यः । अमा-समीप में रहनेवाला-अमात्य। (इह) इह भव इहत्यः । इह-इस जगत् में रहनेवाला-इहत्य। (क्व) क्व भव: क्वत्यः । क्व-कहां रहनेवाला-क्वत्य। (तसि) इतो भव इतस्त्यः । इधर से होनेवाला-इतस्त्य। बिल) तत्र भवस्तत्रत्य: । वहां होनवाला-तत्रत्य । यत्र भवो यत्रत्यः । जहां होनेवाला-यत्रत्य।
सिद्धि-(१) अमात्यः । अमा+सु+त्यम् । अमा+त्य । अमात्य+सु। अमात्यः।
यहां अव्यय-संज्ञक 'अमा' शब्द से शेष अर्थों में इस सूत्र से त्यम्' प्रत्यय है। अमा' शब्द का स्वरादिगण में पाठ होने से 'स्वरादिनिपातमव्ययम्' (१।१।३६) से अव्यय संज्ञा है। अमा' शब्द समीपार्थक है।
(२) इहत्य: आदि पदों में पूर्ववत् त्यप् प्रत्यय है। इह' आदि शब्द तद्धित-प्रत्ययान्त होने से तद्धितश्चासर्वविभक्तिः ' (११३७) से इनकी अव्यय-संज्ञा है।
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