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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (१०) सांकाश्यम्। यहां 'संकाश' शब्द से चातुरर्थिक ‘ण्य' प्रत्यय है। तद्धितेष्वचामादे: (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही-काम्पिल्यम् ।
(११) बल्यम्। यहां 'बल' शब्द से चातुरर्थिक य' प्रत्यय है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार' का लोप होता है। ऐसे ही-कुल्यम्।
(१२) पाक्षायणः। यहां 'पक्ष' शब्द से चातरर्थिक फक' प्रत्यय है। 'आयनेयः' (७।१।२) से 'फ्' के स्थान में आयन्' आदेश और पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही-तौषायणः।
(१३) कार्णायनिः । यहां कर्ण' शब्द से चातुरर्थिक फिन्' प्रत्यय है। पूर्ववत् फ्' के स्थान में 'आयन्' आदेश और अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही-वासिष्ठायनिः ।
(१४) सौतङ्गमिः । यहां सुतङ्गम' शब्द से चातुरर्थिक इञ् प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही-मौनचित्तिः ।
(१५) प्रगद्यम् । यहां प्रगदिन्' शब्द से चातुरर्थिक व्य' प्रत्यय है। 'नस्तद्धिते (६।४।१४४) से अंग के टि-भाग (इन्) का लोप होता है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही-मागद्यम्।
(१६) वाराहकम् । यहां वराह' शब्द से चातुरर्थिक कक्' प्रत्यय है। किति च (७।२।११८) से अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही-पालाशकम् ।
(१७) कौमुदिकम् । यहां कुमुद' शब्द से चातुरर्थिक ठक्' प्रत्यय है। ठस्येक:' (७।३।५०) से ' के स्थान में 'इक्’ आदेश और किति च (७।२।११८) से अंग को आदिवृद्धि होती है।
विशेष-इन अरीहण आदि १७ गणों के शब्दों से अस्मिन्, निर्वत्त, निवास, अदूरभव इन चार अर्थों में वुञ्' आदि १७ प्रत्ययों का यथासंख्य विधान किया गया है। यहां कुछ शब्द चेतनवाची और कुछ शब्द अचेतनवाची हैं। अत: उनका यथासम्बन्ध तथा प्रयोग के अनुसार उक्त अर्थों की ऊहा कर लेनी चाहिये। प्रत्ययस्य लुप्
(१५) जनपदे लुप्।८०। प०वि०-जनपदे ७१ लुप् १।१।। अनु०-अस्मिन्नादिषु देशे तन्नाम्नि इति चानुवर्तते।
अन्वय:-यथासम्भव०प्रातिपदिकाद् अस्मिन्नादिषु चतुर्वर्थेषु विहितस्य प्रत्ययस्य लुप् जनपदे।
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