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चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः
२४३ आर्यभाषा: अर्थ-यथासम्भव-विभक्तिसमर्थ (अरीहणकुमुदादिभ्यः) अरीहरण, कृशाश्व, ऋश्य, कुमुद, काश, तृण, प्रेक्षा, अश्म, सखि, संकाश, बल, पक्ष, कर्ण, सुतंगम, प्रगदिन्, वराह, कुमुद आदि प्रातिपदिकों से (अस्मिन्) अस्मिन् आदि चार अर्थों में यथासंख्य (वुञ्ठ क:) वु, छण, क, ठच्, इल, श, इनि, र, ढञ्, ण्य, य, फक्, फिज, इज, ज्य, कक्, ठक् प्रत्यय होते हैं (तन्नाम्नि देशे) यदि वहां तन्नामक देश अर्थ अभिधेय हो।
उदा०-संस्कृत भाग में देख लेवें। सिद्धि इस प्रकार है- .
सिद्धि-(१) आरीहणकम् । यहां 'अरीहण' शब्द से चातुरर्थिक वुञ् प्रत्यय है। 'युवोरनाकौ' (७।१।१) से 'वु' के स्थान में 'अक' आदेश होता है। ऐसे ही-द्रौघणकम् ।
(२) कृशाश्वीयः । यहां कृशाश्व' शब्द से चातुरर्थिक छण्' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से छ’ के स्थान में ईय् आदेश और तद्धितेष्वचामादे: (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही-आरिष्टीयः। ..
(३) ऋश्यकः । यहां ऋश्य' शब्द से चातुरर्थिक क' प्रत्यय है। 'क' प्रत्यय के तद्धित होने से लश्क्वतद्धिते' (१।३।८) से ककार की इत्-संज्ञा न होकर तस्य लोपः' (१ ।३।९) से लोप नहीं होता है। ऐसे ही-न्यग्रोधकः ।
(४) कुमुदिकम् । यहां कुमुद' शब्द से चातुरर्थिक ठच्' प्रत्यय है। 'ठस्येकः' (७।३।५०) से ठ्' के स्थान में 'इक्’ आदेश होता है। ऐसे ही-शर्करिकम् ।
(५) काशिलम् । यहां काश' शब्द से 'चातुरर्थिक' इल प्रत्यय है। ऐसे ही-वाशिलम्।
(६) तृणशम् । यहां तृण' शब्द से चातुरर्थिक 'श' प्रत्यय है। 'श' के तद्धित होने से लश्चतद्धिते (१।३।८) से शकार की इत्संज्ञा न होकर 'तस्य लोपः' (१।३।९) से लोप नहीं होता है। ऐसे ही-नडशम् ।
(७) प्रेक्षी। यहां प्रेक्षा' शब्द से चातुरर्थिक 'इनि' प्रत्यय है। प्रेक्षिन्+सु। प्रेक्षीन्+०। प्रेक्षी। सौ च (६।४।१३) से नकारान्त अंग की उपधा को दीर्घ, हल्याब्भ्यो०' (६।१।६६) से सु का लोप और नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य (८।२७) से नकार का लोप होता है। ऐसे ही-हलकी।
(८) अश्मरः । यहां 'अश्मन्’ शब्द से चातुरर्थिक 'र' प्रत्यय है। 'नस्तद्धिते (६।४।१४४) से नकार का लोप होता है। ऐसे ही-यूषरः।।
(९) साखेयम् । यहां सखि' शब्द से चातुरर्थिक ढञ्' प्रत्यय है। 'आयनेयः' (७११।२) से 'द' के स्थान में 'एय्' आदेश, तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि और 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के इकार का लोप होता है। ऐसे ही-साखिदत्तेयम्।
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