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________________ २२६ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् ___ आर्यभाषा: अर्थ- (तद्) द्वितीया-समर्थ (प्रोक्तात्) प्रोक्त-प्रत्ययान्त (छन्दोब्राह्मणानि) छन्दोवाची और ब्राह्मणवाची शब्द (च) भी (तद्विषयाणि) अधीते, वेद अर्थ-विषयक होते हैं। अन्य अर्थ में इनका अभाव होता है। विषय शब्द बहु-अर्थक है। तद्विषयाणि' यहां विषय शब्द अन्यत्र-अभाव अर्थ में है। जैसे-मछलियों का विषय जल है अर्थात् जल से अन्यत्र उनका अभाव है। वैसे प्रोक्तप्रत्ययान्त, छन्दोवाची और ब्राह्मणवाची शब्दों का अधीते, वेद विषय है। इससे अन्य अर्थ में इनका अभाव होता है। उदा०-संस्कृत भाग में देख लेवें। अर्थ इस प्रकार है-(छन्द) कठ के द्वारा प्रोक्त-कठ। जो कठसंहिता को पढ़ता है वा जानता है वह-कठ। मोद के द्वारा प्रोक्त-मौद। जो मौदसंहिता को पढ़ता है वा जानता है वह-मौद। पिप्लाद के द्वारा प्रोक्त-पैप्लाद। जो पैप्लाद संहिता को पढ़ता है वा जानता है वह पैप्लाद। ऋचाभ के द्वारा प्रोक्त-आ भी। जो आर्चाभी संहिता को पढ़ता है वा जानता है वह-आ भी। वाजसनेय के द्वारा प्रोक्त-वाजसनेयी। जो वाजसनेयी संहिता को पढ़ता है वा जानता है वह-वाजसनेयी। (ब्राह्मण) ताण्ड्य के द्वारा प्रोक्त-ताण्डी। जो ताण्डी ब्राह्मण को पढ़ता है वा जानता है वह-ताण्डी। भाल्लवि के द्वारा प्रोक्त-भाल्लवी। जो भाल्लवी ब्राह्मण को पढ़ता है वा जानता है वह-भाल्लवी। शाट्यायन के द्वारा प्रोक्त-शाट्यायनी। जो शाट्यायनी ब्राह्मण को पढ़ता है वा जानता है वह शाट्यायनी। ऐतरेय के द्वारा प्रोक्त-ऐतरेयी। जो ऐतरेयी ब्राह्मण को पढ़ता है वा जानता है वह-ऐतरेयी। सिद्धि-(१) कठः । कठ+टा+णिनि। कठ+० । कठ+अण। कठ+0। कठ+सु। कठः। यहां तृतीया-समर्थ कठ' शब्द से कलापिवैशम्यायनान्तेवासिभ्यश्च' (४।३।१०४) से प्रोक्त अर्थ में 'णिनि' प्रत्यय होता है किन्तु 'कठचरकाल्लुक्' (४।३।१०७) से उसका लोप हो जाता है। तत्पश्चात् प्रोक्त-प्रत्ययान्त द्वितीया-समर्थ 'कठ' शब्द से इस सूत्र से तदविषयता होकर तदधीते तवेद' (७।२।११७) से यथाविहित 'अण्' प्रत्यय होता है और प्रोक्ताल्लुक् (४।२।६३) से उस 'अण्' प्रत्यय का भी लोप हो जाता है। (२) मौदः । मोद+टा+अण्। मौद्+अ। मौद+अण्। मौद+०। मौद+सु। मौदः। यहां मोद' शब्द से प्रोक्त अर्थ में कलापिनोऽण्' (४।३।१०८) से अण् प्रत्यय होता है। तत्पश्चात् प्रोक्त-प्रत्ययान्त 'मौद' शब्द से पूर्ववत् 'अण्' प्रत्यय और उसका लोप होता है। (३) आर्चाभी। ऋचाभ+टा+णिनि । आर्चाभ्+इन् । आचाभिन्+अम्+अण्। आर्चाभिन्+० । आभिन्+सु। आ भी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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