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चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः सिद्धि-(१) भैक्षम् । भिक्षा+आम्+अण्। भैक्ष्+अ। भैक्ष+सु। भैक्षम्।
यहां षष्ठी-समर्थ भिक्षा' शब्द से समूह अर्थ में इस सूत्र से 'अण्' प्रत्यय है। 'तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११८) से अंग को आदिवृद्धि और 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के आकार का लोप होता है।
(२) गार्भिणम् । गर्भिणी+आम्+अण् । गर्भिन्+अ। गार्भिन्+अ। गार्भिण+सु । गार्भिणम्।
यहां षष्ठी-समर्थ गर्भिणी' शब्द से समूह अर्थ में इस सूत्र से अण् प्रत्यय है। वा०- 'भस्याढे तद्धिते०' (६।३।३५) से पुंवद्भाव होने से डीप् प्रत्यय की निवृत्ति होती है तत्पश्चात् अण् प्रत्यय परे होने पर इनण्यनपत्ये' (६।४।१६४) से प्रकृतिभाव होने से नस्तद्धिते' (६।४।१४४) से टि-भाग (इन्) का लोप नहीं होता है।
(३) यौवतम् । युवति+आम्+अण् । युवति+अ। यौवत्+अ। यौवत+सु । यौवतम्।
यहां षष्ठी-समर्थ 'युवति' शब्द से समूह अर्थ में इस सूत्र से 'अण्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के इकार का लोप होता है। 'युवति' शब्द भिक्षादिगण में पढ़ा है अत: उसे वा०- 'भस्याढे तद्धिते०' (६।३।३५) से पुंवद्भाव (युवन्) नहीं होता है। वुञ्(३) गोत्रोक्षोष्ट्रोरभ्रराजराजन्यराजपुत्रवत्समनुष्याजाद्
वुञ्।३८।
प०वि०- गोत्र-उक्ष-उष्ट्र-उरभ्र-राज-राजन्य-राजपुत्र-वत्स-मनुष्यअजात् ५।१ वुञ् १।१।
स०-गोत्रं च उक्षा च उष्ट्रश्च उरभ्रश्च राजा च राजन्यश्च राजपुत्रश्च वत्सश्च मनुष्यश्च अजश्च एतेषां समाहार:-गोत्र०अजम्, तस्मात्-गोत्र०अजात् (समाहारद्वन्द्वः)।
अनु०-तस्य, समूह इति चानुवर्तते। अन्वयः-तस्य गोत्र०अजात् समूहो वुन् ।
अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थेभ्यो गोत्रादिभ्य: प्रातिपदिकेभ्य: समूह इत्यस्मिन्नर्थे वुञ् प्रत्ययो भवति । ___अपत्याधिकारादन्यत्र लौकिकं गोत्रं गृह्यतेऽपत्यमात्रम्, न तु 'अपत्यं पौत्रप्रभृति गोत्रम्' (४।१।१६२) इति पारिभाषिकं गोत्रम् ।
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