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चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः अन्वय:-तेन नक्षत्रेण द्वन्द्वाद् युक्तश्छ: काल:।
अर्थ:-तेन-इति तृतीयासमर्थाद् नक्षत्रद्वन्द्वात् प्रातिपदिकाद् युक्त इत्यस्मिन्नर्थे छ: प्रत्ययो भवति, योऽसौ युक्त: कालश्चेत् स भवति, विशेषे चाऽविशेषे च।
उदा०-राधानुराधाभ्यां युक्त: काल:-राधानुराधीया रात्रिः । अविशेषेअद्य राधानुराधीयम् । तिष्यपुनर्वसुभ्यां युक्त: काल:-तिष्यपुनर्वसवीयमहः । अविशेषे-अद्य तिष्यपुनर्वसवीयम् । - आर्यभाषा: अर्थ-तिन) तृतीया-समर्थ (नक्षत्रेण) नक्षत्रवाची (द्वन्द्वात्) द्वन्द्वसमास रूप प्रातिपदिक से (युक्तः) जुड़ा हुआ अर्थ में (छ:) छ प्रत्यय होता है (काल:) जो युक्त है, यदि वह काल हो।
उदा०-राधानुराधाभ्यां युक्त: काल:-राधानुराधीया रात्रिः। राधा और अनुराधा नक्षत्रों से युक्त काल-राधानुराधीया रात्रि। अविशेष में-अद्य राधानुराधीयम् । आज राधानुराधीय नक्षत्र है। तिष्यपुनर्वसुभ्यां युक्त: काल:-तिष्यपुनर्वसवीयमहः । तिष्य और पुनर्वसु नक्षत्रों से युक्त काल-तिष्यपुनर्वसवीय दिवस । अविशेष में-अद्य तिष्यपुनर्वसवीयम् । आज तिष्यपुनर्वसु नक्षत्र है।
सिद्धि-(१) राधानुराधीया। राधानुराध+टा+छ। राधानुराध्+ईय। राधानुराधीयम्+सु। राधानुराधीयम् ।
यहां नक्षत्रवाची द्वन्द्वसमास में 'राधानुराधा' शब्द से इस सूत्र से छ प्रत्यय होता है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'छ' के स्थान में 'ईय्' आदेश और 'यस्येति च (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है।
(२) तिष्यपुनर्वसवीयम्। तिष्यपुनर्वसु+टा+छ। तिष्यपुनर्वसो+ईय। तिष्यपुनर्वसवीय+सु । तिष्यपुनर्वसवीयम्।
यहां 'ओर्गुणः' (६।४।१४६) से अंग को गुण और 'एचोऽयवायवः' (६।१।७५) से 'अव्' आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
विशेष-(१) 'राधानुराधीयम्' में 'राधा' नक्षत्र विशाखा नक्षत्र का वाचक है। विशाखा नामक दो नक्षत्र हैं। एक का नाम राधा और दूसरे का नाम अनुराधा है।
(२) तिष्यपुनर्वसु-तिष्य एक नक्षत्र है और पुनर्वसु दो नक्षत्र हैं। इनके द्वन्द्वसमास में बहुवचन की प्राप्ति में तिष्यपुनर्वस्वोर्नक्षत्रद्वन्द्वे बहुवचनस्य द्विवचनं नित्यम्' (१।२।६३) से नित्य द्विवचन होता है।
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