SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थाध्यायस्य प्रथमः पादः १४५ सिद्धि - (१) ग्लुचुकायनि: । ग्लुचुक+ङस् + फिन् । ग्लुचुक्+आयनि। ग्लुचुकायनि+सु । ग्लुचुकायनिः । यहां षष्ठीसमर्थ अवृद्धसंज्ञक 'ग्लुचुक' शब्द से अपत्य अर्थ में पूर्व भारत के आचार्यों के मत में 'फिन्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है । (२) ग्लौचुकिः। ग्लुचुक+ङस्+इञ् । ग्लौचुक्+इ। ग्लौचुकि+सु । ग्लौचुकिः । यहां पूर्वोक्त 'ग्लुचुक' शब्द से अपत्य अर्थ में अन्य आचार्यों के मत में 'अत इञ् (४ 1१1९२) से बहुल पक्ष में 'इञ्' प्रत्यय है। ऐसे ही - अहिचुम्बकायनि., आहिचुम्बकिः । अञ् +यत् ( षुक् ) - (१) मनोर्जातावञ्यतौ षुक् च । १६१ । प०वि०-मनो: ५ ।१ जातौ ७।१ अञ्-यतौ १ । २ षुक् १ । १ च अव्ययपदम् । अनु०-तस्य, अपत्यमिति चानुवर्तते । अन्वयः-तस्य मनोरपत्यम् अञ्यतौ षुक् च जातौ । अर्थः-तस्य इति षष्ठीसमर्थाद् मनुशब्दात् प्रातिपदिकाद् अपत्यमित्यस्मिन्नर्थेऽञ्-यतौ प्रत्ययौ भवतः, तस्य च षुक् आगमो भवति, जातौ गम्यमानायाम् । उदा०-मनोरपत्यम्-मानुषः, मनुष्यश्च । आर्यभाषाः अर्थ- (तस्य) षष्ठी - समर्थ (मनो: ) मनु शब्द प्रातिपदिक से (अपत्यम्) अपत्य अर्थ में (अज्यतौ) अञ् और यत् प्रत्यय होते हैं (च) और उसे (षुक्) षुक् आगम होता है (जातौ) यदि वहां जाति अर्थ की प्रतीति हो । उदा०- -मनोरपत्यम्-मानुषः, मनुष्यश्च । मनु का पुत्र - मानुष और मनुष्य । सिद्धि - (१) मानुष: । मनु+अञ् । मनु षुक् +अ । मानुष्+अ । मानुष+सु । मानुषः । यहां मनु शब्द से अपत्य अर्थ में तथा जाति अर्थ अभिधेय होने पर इस सूत्र से 'अञ्' प्रत्यय और मनु शब्द को 'षुक्' आगम होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है । / (२) मनुष्यः । मनु+यत् । मनु षुक्+य। मनुष्+य। मनुष्य+सु। मनुष्यः । यहां मनु शब्द से पूर्ववत् यत् प्रत्यय और उसे षुक् आगम है। विशेष-यहां पं० जयादित्य आदि भाष्यकार अपत्य अर्थ की अनुवृत्ति नहीं मानते हैं। गुरुवर पं० विश्वप्रिय शास्त्री का मत है कि यहां अपत्य अर्थ की अनुवृत्ति है, अतः तदनुसार ही सूत्र की व्याख्या की गई है। महाभाष्यकार पतञ्जलि ने यहां मनु शब्द से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy