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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यहां षष्ठी- समर्थ 'भ्रातृ' शब्द से अपत्य अर्थ में इस सूत्र से 'व्यत्' प्रत्यय है। प्रत्यय का त्' इत् होने से 'तित् स्वरितम्' ( ६ । १ । १७९ ) से स्वरित स्वर होता है - भ्रातृव्यः । (२) भ्रात्रीयः । भ्रातृ+ङस् +छः । भ्रातृ+ईय। भ्रात्रीय+सु | भ्रात्रीयः । १३० यहां षष्ठीसमर्थ 'भ्रातृ' शब्द से अपत्य अर्थ में 'छ' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७/१/२) से छू' के स्थान में 'ईय्' आदेश होता है। 'इको यणचि' (६1१1७५) से भातृ के 'ऋ' वर्ण को यण् (र्) आदेश होता है। व्यन् (१) व्यन् सपत्ने । १४५ । प०वि०-व्यन् १ । १ सपत्ने ७ । १ । अनु० - भ्रातुरित्यनुवर्तते । अन्वयः-भ्रातुर्व्यन् सपत्ने 1 अर्थः-भ्रातृशब्दात् प्रातिपदिकात् सपत्नेऽभिधेये व्यन् प्रत्ययो भवति । उदा०-भ्रातृव्यः कण्टकः । आर्यभाषाः अर्थ- (भ्रातुः ) भातृ प्रातिपदिक से (सपने) पात्रु अर्थ अभिधेय होने पर (व्यन् ) व्यन् प्रत्यय होता है। उदा० - भ्रातृव्यः कण्टकः । कांटे के समान दुःखदायक शत्रु- भ्रातृव्य । सिद्धि - भातृव्यः । भ्रातृ + ङस् + व्यन् । भ्रातृ+व्य । भ्रातृव्य+सु । भ्रातृव्यः । यहां षष्ठीसमर्थ' 'भ्रातृ' शब्द से सपत्न (शत्रु) अर्थ में इस सूत्र से 'व्यन्' प्रत्यय है। प्रत्यय के नित होने से 'नित्यादिर्नित्यम्' ( ६ । १ । १९१ ) से आद्युदात्त स्वर होता है-भ्रातृव्यः । विशेष-यहां 'भ्रातृव्य' शब्द के भतीजा और शत्रु दो अर्थ बताये गये हैं। भतीजा अर्थ में 'भ्रातृव्य' शब्द अन्तस्वरित होता है और शत्रु अर्थ में आद्युदात्त होता है जैसा कि ऊपर सिद्धि-सन्दर्भ में दिखाया गया है। ठक् (१) रेवत्यादिभ्यष्ठक् । १४६ । प०वि०-रेवती-आदिभ्यः ५ । ३ ठक् १ । १ । स०- रेवती आदिर्येषां ते रेवत्यादयः, तेभ्यः - रेवत्यादिभ्यः (बहुव्रीहि: ) । अनु० - तस्य अपत्यमिति चानुवर्तते । 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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