________________
१०६
चतुर्थाध्यायस्य प्रथमः पादः । उदा०- (संख्या) द्वयोर्मात्रोरपत्यम्-द्वैमातुरः । षण्णां मातृणामपत्यम्पाण्मातुरः । (सम्) सम्मातुरपत्यम्-साम्मातुरः (भद्रः) भद्रमातुरपत्यम्भाद्रमातुरः।
आर्यभाषा: अर्थ- (तस्य) षष्ठी-समर्थ (संख्यासम्भद्रपूर्वाया:) संख्यावाची शब्द, सम् और भद्र पूर्वक (मातु:) मातृ प्रातिपदिकों से (अपत्यम्) अपत्य अर्थ में (अण्) अण् प्रत्यय होता है और (उत्) मातृ शब्द के अन्त्य 'ऋ' के स्थान में 'उकार' आदेश होता है।
उदा०-(संख्या) द्वयोर्मात्रोरपत्यम्-द्वैमातुरः। दो माताओं का पुत्र-द्वैमातुर । माता के अतिरिक्त चाची आदि भी जिसे अपना पुत्र मानती हो। षण्णां मातृणामपत्यम्-पाण्मातुरः । छ: माताओं का पुत्र-षाण्मातुर । माता के अतिरिक्त अन्य पांच चाची, ताई आदि भी जिसे अपना पुत्र मानती हों। (सम्) सम्मातुरपत्यम्-साम्मातुरः । श्रेष्ठ माता का पुत्र-साम्मातुर। (भद्रः) भद्रमातुरपत्यम्-भाद्रमातुरः । कल्याणकारिणी माता का पुत्र-भाद्रमातुर।
सिद्धि-द्वैमातुरः । द्विमातृ+डस्+अण्। द्वैमातुर्+अ। द्वैमातुर+सु। द्वैमातुरः ।
यहां षष्ठी-समर्थ संख्यावाची द्वि' शब्दपूर्वक 'मातृ' शब्द से अपत्य अर्थ में इस सूत्र से 'अण्' प्रत्यय है। मातृ शब्द के 'ऋ' के स्थान में 'उकार' आदेश भी होता है। वह 'उरण रपरः' (१1१।५०) से रपर होता है। तद्धितेष्वचामादे:' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही-षाण्मातुर: आदि। अण्
(५) कन्यायाः कनीन च।११६। प०वि०-कन्याया: ५।१ कनीन १।१ (सु-लुक्) च अव्ययपदम्। अनु०-तस्य, अपत्यम्, अण् इति चानुवर्तते। अन्वय:-तस्य कन्याया अपत्यम् अण् कनीनश्च ।
अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थात् कन्याशब्दात् प्रातिपदिकाद् अपत्यमित्यस्मिन्नर्थेऽण् प्रत्ययो भवति, कनीनश्चादेशो भवति।
उदा०-कन्याया अपत्यम्-कानीन: कर्ण: । कानीनो व्यास: ।
आर्यभाषा अर्थ-(तस्य) षष्ठीसमर्थ (कन्यायाः) कन्या प्रातिपदिक से (अपत्यम्) अपत्य अर्थ में (अण्) अण् प्रत्यय होता है (च) और (कनीन:) कन्या के स्थान में कनीन आदेश होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org