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________________ ६१ चतुर्थाध्यायस्य प्रथमः पादः शराविन्। क्षेमवृद्धिन् । शङ्खलातोदिन्। खरनादिन् । नगरमर्दिन् । प्राकारमर्दिन् । लोमन्। अजीगत । कृष्ण। सलक। युधिष्ठिर। अर्जुन । साम्व। गद। प्रद्युम्न। राम। उदक: संज्ञायाम्। सम्भूयोऽम्भसो: सलोपश्च। इति बाह्यादयः। आकृतिगणोऽयम्।। आर्यभाषा: अर्थ- (समर्थानाम्) समर्थ पदों में (प्रथमात्) सूत्र में प्रथम उच्चारित (तस्य) षष्ठी-समर्थ (बाह्लादिभ्यः) बाहु-आदि प्रातिपदिकों से (च) भी (अपत्यम्) अपत्य अर्थ में (इञ्) इञ् प्रत्यय होता है। उदा०-बाहोरपत्यम्-बाहविः । बाहु का पुत्र-बाहवि। उपबाहोरपत्यम्-औपबाहविः । उपबाहु का पुत्र-औपबाहवि, इत्यादि। सिद्धि-(१) बाहवि: । बाहु+डस्+इञ् । बाहो+इ। बाहवि+सु। बाहविः । यहां षष्ठी-समर्थ 'बाहु' शब्द से इस सूत्र से अपत्य अर्थ में इञ्' प्रत्यय है। 'तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि, ओर्गुणः' (६।४।१४६) से अंग को गुण, एचोऽयवायाव:' (६।१।७५) से 'अन्' आदेश होता है। ऐसे ही-औपबाहविः । विशेषः अनुवृत्ति:- ‘समर्थानां प्रथमाद् वा' (४।११८२) की अनुवृत्ति प्राग दिशो विभक्ति:' (५।३।१) तक है। यहां उसकी सूत्रार्थ के साथ संगति लगाकर दिखाई गई है। वा' वचन से विकल्प पक्ष में वाक्य भी होता है। लाघव के स्नेह से और विस्तार के भय से इसकी प्रत्येक सूत्रार्थ में अनुवृत्ति नहीं दिखाई जायेगी। इञ् (अकङ्) सुधातुरकङ् च ।६७। प०वि०-सुधातु: ५ ।१ अकङ् १।१ । च अव्ययपदम् । अनु०-तस्य, अपत्यम्, इञ् इति चानुवर्तते। अन्वय:-तस्य सुधातु: अपत्यम् इञ् अकङ् च । अर्थ:-'तस्य' इति षष्ठीसमर्थात् सुधातृशब्दात् प्रातिपदिकाद् अपत्यमित्यस्मिन्नर्थे इञ् प्रत्ययो भवति, तत्सन्नियोगेन चाकङ् आदेशो भवति। उदा०-सुधातुरपत्यम्-सौधातकिः । आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ (सुधातुः) सधात प्रातिपदिक से (अपत्यम्) अपत्य अर्थ में (इञ्) इञ् प्रत्यय होता है और उसके सन्नियोग से सुधातृ' शब्द को अकङ् आदेश होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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