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लक्षणम
चतुर्थाध्यायस्य प्रथमः पादः पूर्वपदम् ऊरूत्तरपदम् (ऊङ्) भाषार्थ: १. संहित: संहितावूरू यस्या: सा- परस्पर मिली हुई जंघाओंवाली संहितोरू:।
स्त्री। २. शफा: शफ इवोरू यस्या: सा- गौ के खुर के समान पृथक्-पृथक् शफोरू:
जंघाओंवाली। लक्षणमूरू यस्या: सा- शुभ लक्षण से युक्त जंधावाली लक्षणोरू:।
स्त्री। ४. वाम: वामावूरू यस्याः सा- सुन्दर जंघाओंवाली स्त्री।
वामोरू: आर्यभाषा: अर्थ-(संहित०वामादेः) संहित, शफ, लक्षण, वाम जिसके आदि में हैं और (ऊरूत्तरपदात्) ऊरु शब्द जिसके उत्तरपद में है उस प्रातिपदिक से (स्त्रियाम्) स्त्रीलिङ्ग में (ऊ) ऊड् प्रत्यय होता है।
उदा०-उदाहरण और उनके अर्थ संस्कृत भाग में देख लेवें।
सिद्धि-संहितोरू: । यहां सहित पूर्वपद और ऊरु उत्तरपदवाले संहितोरु' प्रातिपदिक से स्त्रीलिङ्ग में इस सूत्र से ऊङ्' प्रत्यय है। ऐसे ही-शफोरू: आदि। ऊङ्
(६) कद्रुकमण्डल्वोश्छन्दसि।७१। प०वि०-कद्रु-कमण्डल्वो: ६ ।२ (पञ्चम्यर्थे) छन्दसि ७।१।
स०-कद्रुश्च कमण्डलुश्च तौ-कद्रुकमण्डलू, तयो:-कद्रुकमण्डल्वो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-ऊङ् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि कद्रुकमण्डलुभ्यां स्त्रियाम् ऊङ् ।
अर्थ:-छन्दसि विषये कद्रुकमण्डलुभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां स्त्रियाम् ऊङ् प्रत्ययो भवति।
उदा०- (कद्रुः) कद्रूश्च वै सुपर्णी च (तै०सं० ६।१।६।१)। (कमण्डलु:) मा स्म कमण्डलूं शूद्राय दद्यात् ।
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