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पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम्
अन्वयः-धिन्विकृण्विभ्यां धातुभ्याम् उ:, तयोरकारश्च कर्तरि
सार्वधातुके ।
अर्थ:-धिन्विकृण्विभ्यां धातुभ्यां पर उः प्रत्ययो भवति, तयोरन्त्यस्य वकारस्य स्थानेऽकारादेशोऽपि भवति, कर्तृवाचिनि सार्वधातुके प्रत्यये परतः । उदा०- ( धिन्वि ) धिनोति । ( कृण्वि) कृणोति ।
आर्यभाषा-अर्थ- (धिन्विकृण्व्योः) धिन्वि और कृण्वि (धातोः) धातु' से परे (उः) उ-प्रत्यय होता है और उनके अन्त्य वकार के स्थान में (अ) अकार आदेश (च) भी होता है (कर्तीर) कर्तृवाची (सार्वधातुके) सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर ।
उदा०- - (धिन्वि) धिनोति । वह तृप्त करता है। (कृण्वि) कृणोति । वह हिंसा करता है/ वह करता है/ वह गति करता है।
सिद्धि-(१) धिनोति । धिन्व+लट् । धिन् अ+उ+ तिप् । धिन्0+ओ+ति । धिनोति
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यहां 'धिवि प्रीणनार्थ:' ( भ्वा०प०) धातु के इदित होने से 'इदितो नुम् धातो:' (७1१1५८) से नुम्' आगम होता है। सूत्र में दोनों धातु 'नुम्' आगम सहित पढ़ी गई है। इस सूत्र से सार्वधातुक 'तिप्' प्रत्यय परे होने पर 'उ' प्रत्यय होता है और धातु के अन्त्य वकार के स्थान में अकार आदेश भी होता है। 'अतो लोप:' ( ६ |४/४८) से अकार का लोप हो जाता है । 'धिन्' को 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७ । ३ ।८६ ) से गुण करने में वह अकार - लोप 'अचः परस्मिन् पूर्वविधौ (१।१।५६ ) से स्थानिवत् हो जाता है, अत: उक्त लघूपध गुण नहीं होता है। 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से 'उ' को गुण (ओ) हो जाता है।
(२) कृणोति । कृवि हिंसा - करणयोश्च चकाराद् गत्यर्थोऽपि (भ्वा०प०) पूर्ववत् ।
श्ना
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(१४) क्रयादिभ्यः श्ना । ८१ । प०वि०-क्री-आदिभ्यः ५ । ३ श्ना १ । १ ( लुप्तप्रथमा) ।
स०-क्री आदिर्येषां ते क्रयादयः, तेभ्य:- क्रयादिभ्यः ( बहुव्रीहि: ) । अनु० - सार्वधातुके कर्तरि इति चानुवर्तते ।
अन्वयः - क्रयादिभ्यो धातुभ्यः श्ना कर्तरि सार्वधातुके ।
अर्थ:- क्रयादिभ्यो धातुभ्यः परः श्ना प्रत्ययो भवति कर्तृवाचिनि सार्वधातुके प्रत्यये परतः ।
उदा०- (क्री) क्रीणाति । (प्री) प्रीणाति ।
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