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तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः
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___ (१२) तनादिकृञ्भ्य उः ७६ | प०वि०-तनादि-कृञ्भ्य: ५ ।३ उ: १।१।
स०-तन् आदिर्येषां ते तनादय:, तनादयश्च कृञ् च ते-तनादिकृञः, तेभ्य:-तनादिकृञ्भ्य: (बहुव्रीहिगभिततरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-सार्वधातुके कर्तरि इति चानुवर्तते। अन्वय:-तनादिकृञ्भ्यो धातुभ्य उ: कतरि सार्वधातुके।
अर्थ:-तनादिभ्यो धातुभ्य: कृञ्-धातोश्च पर उ: प्रत्ययो भवति, कर्तृवाचिनि सार्वधातुके प्रत्यये परतः।।
उदा०-(तनादिः) तन्-तनोति । सन्-सनोति। (कृञ् ) करोति।
आर्यभाषा-अर्थ-(तनादिकृञ्भ्य:) तनादि और कृञ् (धातोः) धातु से परे (उ:) उ-प्रत्यय होता है (कतीरे) कर्तृवाची (सार्वधातुके) सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर।
उदा०-(तनादि) तन्-तनोति। वह फैलाता है। सन्-सनोति । वह देता है। (कृञ्) करोति । वह करता है।
___ सिद्धि-(१) तनोति । 'तनु विस्तारे' (तना०प०) धातु से सार्वधातुक 'तिप्' प्रत्यय परे होने पर इस सूत्र से 'उ' प्रत्यय होता है और उसे सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३१८४) से गुण हो जाता है।
(२) सनोति। षणु दाने (तना०उ०) पूर्ववत्।
(३) करोति । डुकृञ् करणे' (तना० उ०) पूर्ववत् । कृञ् धातु का तनादिगण में पाठ है, फिर सूत्र में कृञ्' का पृथक् ग्रहण इसलिये किया गया है कि कृञ्' धातु से उ' प्रत्यय ही हो, अन्य तनादि का कार्य न हो। जैसे तनादिभ्यस्तथासो:' (२।४।७९) से कृ' धातु से विकल्प से सिच् का लुक् नहीं होता है-अकृत, अकृथाः।
विशेष-तनादि धातु पाणिनीय धातुपाठ के तनादिगण में देख लेवें। उ:
(१३) धिन्विकृण्व्योर च।८०। प०वि०-धिन्वि-कृण्व्यो: ६।२ अ ११ (लुप्तप्रथमा) च अव्ययपदम्।
स०-धिन्विश्च कृण्विश्च तौ धिन्विकृण्वी, तयो:-धिन्विकृण्व्यो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-सार्वधातुके, कतीर, उ: इति चानुवर्तते ।
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