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________________ तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः ૬૭ सिद्धि-संयस्यति, संयसति । 'यसु प्रयत्ने' (दि०प०) धातु से पूर्ववत् श्यन् और शप् प्रत्यय है। श्नु: (६) स्वादिभ्यः श्नुः ।७३। प०वि०-सु-आदिभ्य: ५।३ अनु: १।१। स०-सु आदिर्येषां ते स्वादय:, तेभ्य:-स्वादिभ्यः (बहुव्रीहिः)। अनु०-सार्वधातुके कर्तरि इति चानुवर्तते । अन्वय:-स्वादिभ्यो धातुभ्य: श्नु: कर्तरि सार्वधातुके। अर्थ:-सु-आदिभ्यो धातुभ्य: पर: श्नु: प्रत्ययो भवति, कर्तृवाचिनि सार्वधातुके प्रत्यये परतः। उदा०-(सु) सुनोति । (सि) सिनोति। आर्यभाषा-अर्थ-(स्वादिभ्यः) सु आदि (धातो:) धातुओं से परे (श्नुः) नु प्रत्यय होता है (कतीर) कर्तृवाची (सार्वधातुके) सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर। उदा०-(सु) सुनोति। वह रस निचोड़ता है। (सि) सिनोति । वह बांधता है। सिद्धि-(१) सुनोति। पुत्र अभिषवे' (स्वा०उ०) धातु से सार्वधातुक तिप् प्रत्यय परे होने पर इस सूत्र से 'शुनु' प्रत्यय होता है। सार्वधातुकमपित्' (१।२।४) से 'अनु' प्रत्यय के डित् होने से, सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से प्राप्त गुण का विडति च' (१।१५) से निषेध हो जाता है। तिप्' प्रत्यय परे होने पर 'अनु' को 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से गुण होता है। (२) सिनोति। 'सिञ् बन्धने' (दिवा०उ०) पूर्ववत् । विशेष-सु-आदि धातु पाणिनीय धातुपाठ के स्वादिगण में देख लेवें । श्नुः (७) श्रुवः शृ च ७४। प०वि०-श्रुव: ५ ।१ (६।१) ११।१ (लुप्तप्रथमा) च अव्ययपदम् । अनु०-सार्वधातुके, कर्तरि, अनुः इति चानुवर्तते। अन्वय:-श्रुवो धातो: अनुस्तस्य च शृ: कर्तरि सार्वधातुके। अर्थ:-श्रुवो धातो: पर: अनुः प्रत्ययो भवति, श्रुव: स्थाने च शृ-आदेशो भवति, कर्तृवाचिनि सार्वधातुके प्रत्यये परत:। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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