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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अनु०-धातोरित्यनुवर्तते। अन्वय:-धातोस्तिशित् सार्वधातुकम् । अर्थ:-धातोर्विहिता स्तिङ: शितश्च प्रत्यया: सार्वधातुकसंज्ञका भवति ।
उदा०-स भवति । स नयति । स स्वपिति । स रोदिति । पवमानः । यजमान:।
आर्यभाषा-अर्थ-(धातोः) धातु से विहित (तिशित्) तिङ् और शित् प्रत्यय (सार्वधातुकम्) सार्वधातुक संज्ञक होते हैं।
उदा०-स भवति । वह होता है। स नयति । वह ले जाता है। स स्वपिति । वह सोता है। स रोदिति । वह रोता है। पवमानः । पवित्र करता हुआ। यजमानः । यज्ञ करता हुआ।
सिद्धि-(१) भवति । भू+लट् । भू+शप्+तिम्। भ्+अ+ति । भो+अ+ति। भवति ।
यहां 'भू सत्तायाम्' (भ्वा०प०) धातु से वर्तमाने लट्' (३।२।१२३) से लट्' प्रत्यय, 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से ल' के स्थान में तिप्' आदेश होता है। इस सूत्र से 'तिप्' की सार्वधातुक संज्ञा होने से कर्तरि शप्' (३।१।६८) से 'शप्' विकरण प्रत्यय होता है। 'शप्' प्रत्यय के 'शित्' होने से इसी सूत्र से उसकी भी सार्वधातुक संज्ञा होती है। अत: सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से 'भू' धातु को गुण होता है।
(२) नयति। ‘णी प्रापणे' (भ्वा०3०) पूर्ववत्।।
(३) स्वपिति । स्वप्+लट् । स्वप्+शप्+तिम्। स्वप्+o+ति। स्वप्+इट्+ति। स्वप्+इ+ति। स्वपिति।
यहां 'जिष्वप् शये' (अदा०प०)। यहां तिप्' प्रत्यय के सार्वधातुक होने से कर्तरि शप्' (३।१।६८) से 'शप्' प्रत्यय और 'अदिप्रभृतिभ्यः शप:' (२।४।७२) से 'शप्' का लुक होता है। रुदादिभ्य: सार्वधातुके' (७१२ १७६) से सार्वधातुक को 'इट' आगम होता है।
(४) रोदिति। 'रुदिर् अश्रुविमोचने' (अदा०प०) पूर्ववत् ।
(५) पवमानः । पू+शानन् । पू+शप्+आन। पो+अ+मुक्+आन। पो+अ+म्+आन। पवमान+सु। पवमानः ।
यहां पूङ् पवने (भ्वा०आ०) धातु से पूड्यजो: शानन्' (३।२।१२८) से शानन् प्रत्यय है। प्रत्यय के 'शित्' होने से इस सूत्र से उसकी सार्वधातुक संज्ञा है। 'कर्तरि श' (३।१।६८) से 'शप्' विकरण प्रत्यय और सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से पू' धातु को गुण होता है।
(६) यजमानः । यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु' (भ्वा०3०) पूर्ववत् ।
पिति।
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