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________________ तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः ५५६ (२) अवुः। ‘वा गतिगन्धनयो:' (अदा०प०) पूर्ववत्। (३) अयान् । या+लङ्। अट्+या+शप्+झि। अ+या+o+अन्ति। अ+या+अन्त् । अ+यान् । अयान्। यहां लङ्' प्रत्यय के आदेश 'झि' प्रत्यय के स्थान में पाणिनिमुनि के मत में झोऽन्तः' (७।१।३) से 'अन्त' आदेश होता है। इतश्च' (३।४।१००) से 'इकार' का लोप और संयोगन्तस्य लोपः' (८।२।२३) से 'तकार' का लोप होता है। शाकटायनमतम् (१४) द्विषश्च।११२। प०वि०-द्विष: ५।१ च अव्ययपदम् । अनु०-लस्य, झे:, जुस्, लङः, शाकटायनस्य, एव इति चानुवर्तते । अर्थ:-द्विषश्च धातो: परस्य लङ्सम्बन्धिनो लादेशस्य झि-प्रत्ययस्य स्थाने जुस् आदेशो भवति, शाकटायनस्यैवाचार्यस्य मतेन । उदा०-ते अद्विषुः । पाणिनिमते-अद्विषन्। आर्यभाषा-अर्थ- (द्विषः) द्विष् (धातो:) धातु से परे (च) भी (लड:) लङ् सम्बन्धी (लस्य) लादेश (झे:) झि-प्रत्यय के स्थान में (जुस्) जुस् आदेश होता है, (शाकटायनस्य) शाकटायन आचार्य के (एव) ही मत में। उदा०-ते अद्विषुः । उन्होंने द्वेष किया। पाणिनिमते-अद्विषन् । अर्थ पूर्ववत् है। सिद्धि-(१) अद्विषुः । यहां द्विष अप्रीतौ' (अदा०प०) धातु से परे पूर्ववत् लङ्' प्रत्यय और उसके लादेश झि' प्रत्यय के स्थान में इस सूत्र से शाकटायन आचार्य के मत में 'जुस्' आदेश होता है। (२) अद्विषन् । यहां पाणिनिमुनि के मत में 'झि' प्रत्यय के स्थान में 'जुस्' आदेश नहीं है। शेष कार्य पूर्ववत् है। इति लकारादेशप्रकरणम् । सार्वधातुकसंज्ञा (१) तिङ्शित् सार्वधातुकम् ।११३। प०वि०-तिशित् १।१ सार्वधातुकम् १।१ । स०-श इत् यस्य स शित्, तिङ् च शिच्च एतयो: समाहार:-तिशित् (बहुव्रीहिगर्भित: समाहारद्वन्द्वः) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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