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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् तिम्, सिप, मिस इन पित् प्रत्ययों के लिये हैं। शेष अपित् प्रत्यय सार्वधातुकमपित् (१।२।४) से 'डित्' होते हैं। यासुट्-आगमः (आशीर्लिङि)
(६) किदाशिषि।१०४। प०वि०-कित् ११ आशिषि ७।१। स०-क् इद् यस्य स कित् (बहुव्रीहि:)। अनु०-लस्य, लिङ:, यासुट परस्मैपदेषु, उदात्त, च इति चानुवर्तते। अन्वय:-धातोराशिषि लिङो लस्य परस्मैपदेषु यासुट, उदात्त: किच्च।
अर्थ:-धातो: परस्याऽऽशिषि अर्थे विहितस्य लिङ्लकारस्य लस्य परस्मैपदसंज्ञकेषु आदेशेषु यासुट्-आगमो भवति, स उदात्त: किच्च भवति ।
उदा०-स इज्यात् । तौ इज्यास्ताम् । ते इज्यासुः । स जार्गयात् । तौ जागर्यास्ताम् । ते जागर्यासुः।
आर्यभाषा-अर्थ-(धातो:) धातु से परे (आशिषि) आशीर्वाद अर्थ में विहित (लिङ:) लिङ् लकार के (परस्मैपदेषु) परस्मैपदसंज्ञक प्रत्ययों में (यासुट्) यासुट् आगम होता है (स:) वह (उदात्त:) उदात्त और (कित्) कित् (च) भी होता है।
उदा०-स इज्यात् । वह यज्ञ करे। तौ इज्यास्ताम् । वे दोनों यज्ञ करें। ते इज्यासुः । वे सब यज्ञ करें। स जार्गयात् । वह जागरण करे। तौ जागर्यास्ताम् । वे दोनों जागरण करें। ते जागर्यासः। वे सब जागरण करें।
सिद्धि-(१) इज्यात् । यज्+लिङ्। यज्+यासुट्+तिप्। यज्+यास्+सुट्+त् । इ अ ज्+या o+स्+ते। इज्या+० त् । इज्यात् ।
यहां यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु' (भ्वा०उ०) धातु से 'आशिषि लिङ्लोटौ (३।३।१७३) से आशीर्वाद में लिङ्' प्रत्यय और उसके लादेश तिप्' प्रत्यय को इस सूत्र से यासुट' आगम है और 'सद तिथो:' (४।३।१०७) से 'सुट' आगम होता है। स्को: संयोगाद्योरन्ते च' (८।२।२९) से यासुट्' और सुट्' के स्' का लोप होता है। 'यासुट्' आगम के 'कित्' होने से वचिस्वपियजादीनां किति' (६।१।१५) से यज्' धातु को सम्प्रसारण होता है। 'लिडाशिषि' (३।४।११६) से आशीर्लिङ् के आर्धधातुक होने से कर्तरि शप्' (३।१।६८) से 'शप्' विकरण प्रत्यय नहीं होता है।
(२) इज्यास्ताम् । यहां तस्’ के स्थान में तस्थस्०' (३।४।१०१) से ताम्' आदेश और सुट् तिथो:' (३।४।१०७) से सुट्' आगम होता है। यासुट्' के सकार का स्को: संयोगाद्योरन्ते च' (८।२।२९) से लोप हो जाता है। .
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