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यासुट्-आगमः (लिङि) -
तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः
अव्ययपदम् ।
(५) यासुट् परस्मैपदेषूदात्तो ङिच्च । १०३ |
प०वि०-यासुट् १।१ परस्मैपदेषु ७ । ३ उदात्त: १ । १ ङित् १ ।१ च
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स०-ङ् इद् यस्य स ङित् (बहुव्रीहि: ) अनु० - लस्य इति चानुवर्तते ।
अर्थ:- धातोः परस्य लिङ्सम्बन्धिनो लस्य परस्मैपदसंज्ञकेषु आदेशेषु यासुट् आगमो भवति, स उदात्तो ङिच्च भवति ।
उदा०-स कुर्यात्। तौ कुर्याताम् । ते कुर्युः ।
आर्यभाषा-अर्थ- (धातोः) धातु से परे (लिङः) लिङ् सम्बन्धी ( लस्य ) लादेश के ( परस्मैपदेषु ) परस्मैपद संज्ञक आदेशों में (यासुट् ) यासुट् आगम होता है और वह ( उदात्त:) उदात्त और (ङित् ) ङित् होता है ।
उदा०-स कुर्यात्। वह करे । तौ कुर्याताम् । वे दोनों करें । ते कुर्युः । वे सब
करें ।
सिद्धि - (१) कुर्यात् । कृ+लिङ् । कृ+यासुट् + तिप् । कृ+उ+यास्+सुट्+त् । कर्+उ+या+०+त् । कुर्+०+या+त् । कुर्यात् ।
यहां 'डुकृञ् करणें' (तना० उ० ) धातु से 'विधिनिमन्त्रण० ' ( ३ | ३ | १६१ ) से 'लिङ्' प्रत्यय और उसके लादेश 'तिप्' प्रत्यय को इस सूत्र से यासुट् आगम है । 'लिङः सलोपो ऽनन्त्यस्य' (७/२/७९ ) से यासुट् के 'स्' का लोप और 'इतश्च' (३।४।१००) से 'तिप्' के इकार का लोप होता है। तनादिकृञ्भ्य उ:' (३ 1१1७९) से 'उ' विकरण प्रत्यय, 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७/३/८४) से 'कृ' धातु को गुण (कर्) 'अत उत् सार्वधातुके ( ६ । ४ । ११०) से 'कर्' के 'अ' को 'उकार' आदेश और ये च' (६।४।१०९) से 'उ' प्रत्यय का लोप होता है।
(२) कुर्याताम् । यहां 'तस्' प्रत्यय के स्थान में 'तस्थस् ० ' ( ३ | ४ | १०१) से 'आताम्' आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(३) कुर्युः | यहां 'झि' प्रत्यय के स्थान में 'झेर्जुस्' (३|४|१०८) से 'जुस्' आदेश है। 'उस्यपदान्तात्' (६ /१/९३ ) से 'आ' को पररूप एकादेश (या + उस्=युः) होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
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विशेष- यहां 'यासुट्' आगम के उदात्त कथन से ज्ञापित होता है कि 'आगमा अनुदात्ता भवन्ति अर्थात् आगम अनुदात्त होते हैं। यहां यासुट्' आगम का ङित् कहना
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