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तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः
५१७ (५) कृत: कटो भवता । यहां पूर्वोक्त सकर्मक कृ' धातु से निष्ठा' (३।२।१०२) से विहित 'क्त' प्रत्यय इस सूत्र से कर्मवाच्य अर्थ में होता है।
(६) भुक्त ओदनो भवता । 'भुज्' धातु से पूर्ववत् ।
(७) ईषत्कर: कटो भवता । यहां 'ईषद्' उपपद, पूर्वोक्त सकर्मक कृ' धातु से 'ईषदुःसुषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु खल्' (३।३।१२६) से विहित खल्' प्रत्यय इस सूत्र से कर्मवाच्य अर्थ में है।
(८) दुष्कर: कटो भवता । पूर्ववत् ।
(९) ईषदाढ्यं भवं भवता । यहां ईषद्' उपपद, अकर्मक 'भू' धातु से ईषदुदु:सुषु०' (३ ।३ ।१२६) से विहित खल्' प्रत्यय इस सूत्र से भाववाच्य अर्थ में है।
(१०) स्वाढ्यं भवं भवता । पूर्ववत् । आदिकर्मणि क्तः (कर्तरि कर्मणि भावे च)
(५) आदिकर्मणि क्तः कर्तरि च७१। प०वि०-आदिकर्मणि ७ ।१ क्त: १।१ कर्तरि ७१ च अव्ययपदम् ।
स०-आदि च तत् कर्मेति आदिकर्म, तस्मिन्-आदिकर्मणि (कर्मधारयः)।
अनु०-कर्मणि भावे चाकर्मकेभ्य इति चानुवर्तते। अन्वय:-आदिकणि क्त: कतरि कर्मणि भावे च ।
अर्थ:-आदिकर्मणि य: क्त: प्रत्ययो विहित: स कर्तरि कर्मणि भावे चार्थे भवति । आदिभूत: क्रियाक्षण आदिकर्मेत्युच्यते।
उदा०- (कर्तरि) प्रकृत: कटं देवदत्तः। (कर्मणि) प्रकृतो कटो देवदत्तेन। (भावे) प्रकृतं देवदत्तेन। (कर्तरि) प्रभुक्त ओदनं देवदत्तः। (कर्मणि) प्रभुक्त ओदनो देवदत्तेन। (भावे) प्रभुक्तं देवदत्तेन।
आर्यभाषा-अर्थ-(आदिकर्मणि) क्रिया के प्रारम्भिक क्षण अर्थ में विहित (क्त:) क्त-प्रत्यय (कतीर) कर्तृवाच्य (कमणि) कर्मवाच्य (च) और (भावे) भाववाच्य अर्थ में होता है।
उदा०-(कर्ता) प्रकृत: कटं देवदत्तः । देवदत्त ने चटाई बनाना प्रारम्भ किया। (कर्म) प्रकृत: कटो देवदत्तेन । देवदत्त के द्वारा चटाई बनाना प्रारम्भ किया गया। (भाव) प्रकृतं देवदत्तेन । देवदत्त के द्वारा प्रारम्भ किया गया। (कर्तरि) प्रभुक्त ओदनं
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