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पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम्
उदा०-(१) कृत्यसंज्ञकाः कर्मणि - कर्तव्यः कटो भवता । भोक्तव्य ओदनो भवता । भावे - आसितव्यं भवता । शयितव्यं भवता । ( २ ) क्तः कर्मणि- -कृत: कटो भवता । भुक्त ओदनो भवता । भावे - आसितं भवता । शयितं भवता। (३) खलर्थाः कर्मणि - ईषत्करः कटो भवता । सुकरः कटो भवता । दुष्करः कटो भवता । भावे - ईषदाढ्यंभवं भवता । स्वाढ्यंभवं
भवता ।
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आर्यभाषा-अर्थ-(धातोः) धातु से विहित (कृत्यक्तखलर्था:) कृत्यसंज्ञक, क्त और खलर्थक प्रत्यय ( तयोः) उन भाववाच्य और कर्मवाच्य अर्थ में (एव) ही होते हैं । वे सकर्मक धातुओं से कर्मवाच्य अर्थ में और अकर्मक धातुओं से भाववाच्य अर्थ में होते हैं।
उदा०- - (१) कृत्यसंज्ञक कर्म में- कर्तव्यः कटो भवता । आपके द्वारा चटाई बनानी चाहिये । भोक्तव्य ओदनो भवता । आपके द्वारा चावल खाना चाहिये। भाव में- आसितव्यं भवता । आपके द्वारा बैठना चाहिये । शयितव्यं भवता । आपके द्वारा सोना चाहिये । (२) क्त प्रत्यय कर्म में- कृतः कटो भवता । आपके द्वारा चटाई बनाई गई । भुक्त ओदनो भवता । आपके द्वारा चावल खाया गया। भाव में- आसितं भवता । आपके द्वारा बैठा गया। शयितं भवता । आपके द्वारा सोया गया । (३) खलर्थक कर्म में - ईषत्करः कटो भवता । आपके द्वारा चटाई बनाना सुगम है। सुकरः कटो भवता । आपके द्वारा चटाई बनाना सरल है। दुष्करः कटो भवता । आपके द्वारा चटाई बनाना कठिन है। भाव में - ईषदाढ्यंभवं भवता । आपके द्वारा आढ्य ( धनवान् ) होना सुगम है। स्वाढ्यंभवं भवता । आपके द्वारा आढ्य होना सरल है ।
सिद्धि - (१) कर्तव्यः कटो भवता । यहां सकर्मक 'डुकृञ् करणे' (तना० उ०) धातु से 'तव्यत्तव्यानीयर:' ( ३ | १/९६ ) से विहित कृत्यसंज्ञक 'तव्य' प्रत्यय इस सूत्र से कर्मवाच्य अर्थ में है ।
तव्य प्रत्यय के कर्मवाच्य में होने से कर्म अभिहित (कथित) और कर्ता अनभिहित ( अकथित ) है । अत: कथित कर्म में प्रातिपदिकार्थ० ' (२।३।४६ ) से प्रथमा विभक्ति और अकथित कर्ता में 'कर्तृकरणयोस्तृतीया' (२ । ३ । १८ ) से तृतीया विभक्ति होती है। (२) भोक्तव्य ओदनो भवता । 'भुज पालनाभ्यवहारयो:' (रुधा०आ०) धातु से
पूर्ववत् ।
से
(३) आसितव्यं भवता । यहां अकर्मक 'आस् उपवेशने ( अदा० आ०) धातु पूर्वोक्त सूत्र से विहित 'तव्य' प्रत्यय इस सूत्र से भाव अर्थ में है।
(४) शयितव्यं भवता । 'शीङ् स्वप्ने' (अदा०आ०) पूर्ववत् ।
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