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तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः आर्यभाषा-अर्थ-(ऋते:) ऋत (धातो:) धातु से परे स्वार्थ में (ईयङ्) ईयङ् प्रत्यय होता है।
उदा०- (ऋति) ऋतीयते । घृणा करता है।
सिद्धि-(१) ऋतीयते। ऋत्+ईयङ्। ऋत्+ईय। ऋतीय। ऋतीय+लट् । ऋतीय+शप्+त। ऋतीय+अ+ते। ऋतीयते।
(२) ऋत' यह घृणार्थक सौत्र धातु है। जो धातु पाणिनीय धातुपाठ में पठित न हो और अष्टाध्यायी-सूत्रपाठ में उपलब्ध हो, उसे सौत्र धातु कहते हैं।
(३) ईयङ् प्रत्यय में डकार अनुबन्ध ‘अनुदात्तडित आत्मनेपदम्' (१।३।१२) से आत्मनेपद के लिए है। णिङ् (स्वार्थे)
(२६) कमेर्णिङ् ।३०। प०वि०-कमे: ५ ।१ णिङ् १।१। अनु०-धातोरित्यनुवर्तते। अन्वय:-कमेर्धातोर्णिङ् । अर्थ:-कर्मर्धातो: स्वार्थे णिङ् प्रत्ययो भवति। उदा०-कमु कान्तौ-कामयते।
आर्यभाषा-अर्थ-(कमे:) कम् (धातो:) धातु से परे स्वार्थ में (णिङ्) णिङ् प्रत्यय होता है।
उदा०-कमु कान्तौ (भ्वा०आ०) कामयते। कामना (इच्छा) करता है।
सिद्धि-(१) कामयते । कम्+णिङ् । काम्+इ । कामि । कामि+लट् । कामि+शप्+त। कामे+अ+ते। कामयते।
यहां कमु कान्तौ (भ्वा०आ०) धातु से इस सूत्र से स्वार्थ में णिङ् प्रत्यय है। 'अत उपधाया:' (७।३।१५६) से कम् धातु की उपधा को वृद्धि होती है।
(२) णिड् प्रत्यय में णकार अनुबन्ध 'अत उपधाया:' (७।३।१५६) से वृद्धि के लिये है और डकार अनुबन्ध अनुदात्तङित आत्मनेपदम्' (१।२।१२) से आत्मनेपद के लिये है।
(२७) आयादय आर्धधातुके वा।३१। प०वि०-आय-आदय: १।३ आर्धधातुके ७।१ वा अव्ययपदम् । स०-आय आदिर्येषां ते आयादयः (बहुव्रीहिः) । अनु०-धातोरित्यनुवर्तते।
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