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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (६) कीर्तिः । कृत्+णिच् । कृत्+इ+क्तिन्। कृत्+o+ति। कि र् त्+ति । की र त्+ति। कीर्ति+सु। कीर्तिः ।
यहां कृत संशब्दने (चु०प०) धातु से चुरादि णिच् प्रत्यय करने पर 'ण्यासश्रन्थो युच (३।३ ।१०७) से 'युच्' प्रत्यय प्राप्त था, निपातन से 'क्तिन्' प्रत्यय होता है। ‘णेरनिटि' (६।४।५१) से णिच् का लोप, 'उपधायाश्च' (७।१।१०१) से कृत् की उपधा (ऋ) को इत्त्व, उरण रपरः' (१।१।५१) से 'इ' को रपरत्व (इर्) और हलि च' (८।२।७८) से दीर्घ होता है। क्यप् (भावे)
(५) व्रजयजो वे क्यप्।६८। प०वि०-व्रज-यजो: ६ ।२ (पञ्चम्यर्थे) भावे ७१ क्यप् १।१।
स०-व्रजश्च यज् च तौ-व्रजयजौ, तयो:-व्रजयजोः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-स्त्रियाम्, उदात्त इति चानुवर्तते । अन्वय:-भावे व्रजयजिभ्यां धातुभ्यां स्त्रियां क्यप्, उदात्त: ।
अर्थ:-भावेऽर्थे वर्तमानाभ्यां व्रजयजिभ्यां धातुभ्यां पर: स्त्रियां क्यप् प्रत्ययो भवति, स चोदात्तो भवति।
उदा०- (व्रज) व्रज्या। (यज्) इज्या।
आर्यभाषा-अर्थ-(भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (व्रजयजो:) व्रज, यज् (धातो:) धातुओं से परे (स्त्रियाम्) स्त्रीलिङ्ग में (क्यप्) क्यप् प्रत्यय होता है और वह (उदात्त:) उदात्त होता है।
उदा०- (व्रज) व्रज्या। गति करना। (यज्) इज्या। देवपूजा, संगतिकरण और दान करना।
सिद्धि-(१) व्रज्या । व्रज्+क्यम् । व्रज्+य। व्रज्य+टाप् । व्रज्य+आ। व्रज्या+सु। व्रज्या ।
यहां व्रज गतौ' (भ्वा०प०) धातु से भाव अर्थ में इस सूत्र से क्यप् प्रत्यय है। 'अजाद्यतष्टाप' (४।१।४) से स्त्रीलिङ्ग में टाप' प्रत्यय होता है। क्यप् प्रत्यय के पित् होने से 'अनुदात्तौ सुपितौ' (३।१।४) से अनुदात्त स्वर प्राप्त था, इस सूत्र से उदात्त स्वर होता है।
(२) इज्या। यज्+क्यम् । यज्+य । इ अज्+य । इज्+य । इज्य+टाप् । इज्य+आ। इज्या+सु। इज्या।
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