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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा-अर्थ-(मन्त्रे) वेदविषय में और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (वृषरा:) वृष, इष, पच, मन, विद, भू, वी, रा (धातोः) धातुओं से परे (स्त्रियाम्) स्त्रीलिङ्ग में (क्तिन्) क्तिन् प्रत्यय होता है।
उदा०-(वृष) वृष्टि: (ऋ० १।३८।२) सींचना। (इष) इष्टि: (ऋ० ४।४।७) इच्छा करना। (पच) पक्ति: (ऋ० ४।२४१५) पकाना। (मन) मति: (४।१४।१) समझना/जानना। (विद) वित्ति: । जानना। (भू) भूति: । सत्ता होना। (वी) वीतिः । गति आदि करना। यन्ति वीतये (अथर्व० २० ।६९३) । (रा) राति: (ऋ० १।३४।१) दान करना।
सिद्धि-(१) वृष्टिः। यहां मन्त्रविषय में वृष सेचने' (भ्वा०प०) धातु से भाव अर्थ में तथा स्त्रीलिङ्ग में 'क्तिन्' प्रत्यय है। 'टुना टुः' (८।४।४) से 'क्तिन्' प्रत्यय के त्' को ट्' आदेश होता है। क्तिन्' प्रत्यय के कित्' होने से प्राप्त गुण का क्डिति च (१।१।५) से प्रतिषेध होता है। क्तिन्' प्रत्यय के नित्' होने से जित्यादिनित्यम् (६।१।१९१) से क्तिन्' प्रत्ययान्त शब्द को नित्य आधुदात्त स्वर प्राप्त था, किन्तु इस सूत्र से केवल क्तिन्' प्रत्यय को उदात्त स्वर विधान किया गया है। 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम् (६ ।१ ।१५८) से शेष स्वर अनुदात्त होता है।
(२) इष्टिः । इषु इच्छायाम्' (भ्वा०प०) पूर्ववत् ।
(३) पक्ति: । डुपचष् पाके' (भ्वा०उ०) चो: कु:' (८।४।३०) से ‘पच्' के 'च्’ को कुत्व क्' होता है।
(४) मतिः । 'मन ज्ञाने (दि०आ०) 'अनुदात्तोपदेश०' (६।४।३७) से मन्' के अनुनासिक न्' का लोप होता है।
(५) वित्तिः । विद ज्ञाने' (अदा०प०) खरि च' (८।४।५४) से विद्' के 'द्' को चर् त्' होता है।
(६) भूति: । 'भू सत्तायाम्' (भ्वा०प०) पूर्ववत् । (७) वीति: । वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु' (अदा०प०) पूर्ववत् ।
(८) राति: । ‘रा दाने (अदा०प०)। क्तिन् (निपातनम्)
(४) ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च ।६७। प०वि०-ऊति-यूति-जूति-साति-हेति-कीर्त्तय: १।३ च अव्ययपदम् ।
स०-ऊतिश्च यूतिश्च जूतिश्च सातिश्च हेतिश्च कीर्तिश्च ता:-ऊति०कीर्तय: (इतरेतयोगद्वन्द्वः)।
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