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तृतीयाध्यायस्य तृतीयः पादः
३५१ आर्यभाषा-अर्थ- (अकीरे) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (आडि) आङ् उपसर्गपूर्वक (ह:) हा (धातो:) धातु से परे (अप) अप् प्रत्यय होता है और हा धातु को (सम्प्रसारणम्) सम्प्रसारण होता है, (युद्धे) यदि वहां युद्ध वाच्यार्थ हो।
उदा०-आहूयन्ते यस्मिन् योद्धार इति आहव:=युद्धम् । जिसमें योद्धा जनों का आह्वान किया जाता है वह 'आहव' युद्ध कहाता है।
सिद्धि-आहवः । आड्+हा+अप् । आ+हु आ+अ। आ+हु+अ। आ+हो+अ। आहव+सु। आहवः ।
यहां 'आङ्' उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त हा' धातु से अधिकरण कारक में इस सूत्र से 'अप्' प्रत्यय और 'हा' धातु को सम्प्रसारण होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। अप् (निपातनम्)
(५६) निपानमाहावः।७४। प०वि०-निपानम् १।१ आहाव: १।१ । अनु०-अप्, हृ:, सम्प्रसारणम्, आङ् इति चानुवर्तते । अन्वय:-अकतरि कारके भावे च आहावोऽप्, निपानम्।
अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे वर्तमान आह्वाव-शब्दोऽप् प्रत्ययान्तो निपात्यते, यदि निपानमभिधेयं भवति । निपिबन्ति यस्मिंस्तत् निपानमुदकाधार उच्यते।
उदा०-आहाव: पशूनाम् । कूपोपसरेषु य उदकाधारस्तत्र जलपानाय पशव आहूयन्ते, स आहाव इति कथ्यते।
आर्यभाषा-अर्थ- (अकीरे) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (आहाव:) आहाव शब्द (अप) अप्-प्रत्ययान्त निपातित है, यदि वहां (निपानम्) निपान वाच्यार्थ हो। जिसमें पशु झुककर जल पीते हैं उस जलाधार (खेळ) को निपान कहते हैं।
उदा०-आहाव: पशूनाम् । कूप के ससमीर जो पशुओं के जलपान के लिये जलाधार (खेळ) आदि होते हैं, वहां छेक-छेक शब्द से पशु जलपान के लिये बुलाये जाते हैं, अत: वे 'आहाव' कहाते हैं।
सिद्धि-आहावः । आङ्+हा+अप्। आ+हु आ+अ। आ+हु+अ। आ+हो+अ। आहाव+सु। आहावः।
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