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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-नीवारा नाम व्रीहयो भवन्ति । नीवार तण्डुल को कहते हैं। सिद्धि-नीवारः । नि+व+घञ् । नि+वार्+अ। नीवार+सु । नीवारः ।
यहां 'नि' उपसर्गपूर्वक वा वरणे' (स्वा०३०) वङ् सम्भक्तौ' (क्रया आ०) धातु से कर्म कारक में धान्यविशेष अर्थ में इस सूत्र से घञ् प्रत्यय है। 'अचो णिति (७।२।११५) से वृ' धातु को वृद्धि होती है। 'उपसर्गस्य घञ्यमनुष्ये बहुलम्' (६ ॥३।१२२) से नि' उपसर्ग को दीर्घ होता है। घञ्
(३१) उदि श्रयतियौतिपूद्रुवः ।४६ । प०वि०-उदि ७१ श्रयति-यौति-पू-द्रुव: ५।१ ।
स०-श्रयतिश्च यौतिश्च पूश्च द्रुश्च एतेषां समाहार:-श्रयतियौतिपूद्रु, तस्यात्-श्रयतियौतिपूद्रुवः (समाहारद्वन्द्वः) ।
अनु०-घञ् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अकर्तरि कारके भावे च उदि श्रयतियौतिपूद्रुवो धातोर्घञ् ।
अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे वर्तमानेभ्य: उत्-पूर्वेभ्य: श्रयतियौतिपूद्रुभ्यो धातुभ्य: परो घञ् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-(श्रयति:) उच्छ्राय: । (यौति:) उद्याव: । (पू:) उत्पावः । (द्रुः) उद्मावः।
आर्यभाषा-अर्थ- (अकर्तरि) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (उदि) उत् उपसर्गपूर्वक (श्रयति दुव:) श्रि, यु. पू. द्रु (धातो:) धातुओं से परे (घञ्) घञ् प्रत्यय होता है।
__ उदा०-(श्रयति) उच्छ्राय: । ऊंचाई (यौति)। उद्याव: । मिश्रण करना। (पू) उत्पावः । यज्ञीय पात्रों को पवित्र करना। (दु) उद्माव: । उच्छलना।
सिद्धि-(१) उच्छ्राय: । उत्+श्रि+घञ्। उत्+त्रै+अ। उत्+श्राय। उत्+छाय। उच्छ्राय+सु। उच्छ्रायः।
यहां उत्' उपसर्गपूर्वक श्रियं सेवायाम्' (भ्वा०उ०) धातु से भाव अर्थ में इस सूत्र से घञ् प्रत्यय है। 'अचो णिति' (७।२।११५) से शि' धातु को वृद्धि होती है। 'शश्छोऽटि' (८।४।६३) से 'श्' को 'छ' और 'स्तो: श्चुना श्चुः' (८।४।३९) से त्' को 'च' आदेश होता है।
(२) उद्यावः । उत्' उपसर्गपूर्वक यु मिश्रणेऽमिश्रणे च' (अदा०प०) पूर्ववत् ।
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