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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् लिट्
(१) छन्दसि लिट् ।१०५। प०वि०-छन्दसि ७१ लिट् १।१ । अनु०-भूते इत्यनुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि धातोलिट् भूते। अर्थ:-छन्दसि विषये धातो: परो भूते काले लिट् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-अहं सूर्यमुभयतो ददर्श । (यजु० ८।९) अहं द्यावापृथिवी आततान। (ऋ० १०।८८।३)।
___ आर्यभाषा-अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (धातो:) धातु से परे (भूते) भूतकाल में (लिट्) लिट् प्रत्यय होता है।
उदा०-अहं सूर्यमभयतो ददर्श। मैंने सूर्य को दोनों ओर से देखा है। अहं द्यावापृथिवी आततान । मैंने धुलोक और पृथिवीप लोक को सब ओर विस्तृत किया है।
सिद्धि-(१) ददर्श। यहां दृशिर प्रेक्षणे' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से भूतकाल में लिट्' प्रत्यय है। दृश्+लिट् । दृश्+मिप्। दृश्+णल्। दश्+दृश्+अ। दृ+दर्श+अ। द+दर्श+अ। ददर्श। तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लिट्' के स्थान में मिप्' आदेश, 'परस्मैपदानां णल' (३।४।८२) से मिप्' के स्थान में ‘णल' आदेश होता है। लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१८) दृश्' धातु को द्वित्व, उरत्' (६।४।६६) से अभ्यास के 'ऋ' को 'अ' आदेश और पुगन्तलघूपधस्य च' (७।३ १८६) से 'दृश्' को लघूपध होता है।
(२) आततान । यहां आङ् उपसर्गपूर्वक 'तनु विस्तारे' (तना०प०) धातु से इस सूत्र से भूतकाल में लिट्' प्रत्यय है। अत उपधायाः' (७।२।११६) से तन्' धातु को उपधावृद्धि होती है। शेष कार्य ददर्श के समान है। वा कानच् (लिडादेशः)
(२) लिट: कानज् वा।१०६ । प०वि०-लिट: ६ १ कानच् ११ वा अव्ययपदम् । अनु०-छन्दसि भूते इति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि लिटो वा कानच् भूते।
अर्थ:-छन्दसि विषये लिट: स्थाने विकल्पेन कानच्-आदेशो भवति भूते काले।
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