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तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः अन्वय:-अग्नौ कर्मण्युपपदे चेर्धातो: क्विप् भूते। अर्थ:-अग्नौ कर्मण्युपपदे चिञ्-धातो: पर: क्विप्प्रत्ययो भवति,
भूतकाले।
उदा०-अग्नि चितवानिति अग्निचित्।
आर्यभाषा-अर्थ-(अग्नौ) अग्नि (कमणि) कर्म उपपद होने पर (चे:) चिञ् (धातो:) धातु से परे (क्विप्) क्विप् प्रत्यय होता है (भूते) भूतकाल में।।
उदा०-अग्नि चितवानिति अग्निचित् । अग्नि का आधान करनेवाला, अग्निहोत्री।
सिद्धि-अग्निचित् । यहां 'अग्नि' कर्म उपपद होने पर चिञ् चयने (स्वा०उ०) धातु से इस सूत्र से क्विप्' प्रत्यय है। शेष कार्य 'सुकृत्' (३।२।८९) के समान है।
क्विप्
(६) कर्मण्यग्न्याख्यायाम् ।१२। प०वि०-कर्मणि ७।१ अग्नि-आख्यायाम् ७१।
स०-अग्नेराख्या इति अग्न्याख्या, तस्याम्-अग्न्याख्यायाम् (षष्ठीतत्पुरुषः)।
अनु०-कर्मणि, क्विम्, चे:, इति चानुवर्तते । अन्वय:-कर्मण्युपपदे चेर्धातो: क्विप् अन्याख्यायां भूते।
अर्थ:-कर्मण्युपपदे चिञ्-धातो: पर: कर्मण्येव कारके क्विप् प्रत्ययो भवति, अग्नि-आख्यायां गम्यमानायां भूते काले।
उदा०-श्येन इवाचीयत इति श्येनचित्। कक इवाचीयत इति कङ्कचित् ।
आर्यभाषा-अर्थ-(कर्मणि) कर्म कारक उपपद होने पर (चे:) चिञ् (धातो:) धातु से परे (कर्मणि) कर्मवाच्य में ही (क्विप्) क्विप् प्रत्यय होता है यदि वहां (न्याख्यायाम्) अग्नि का प्रकथन हो (भूते) भूतकाल में।
उदा०-श्येन इवाचीयत इति श्येनचित् (अग्नि:)। वह अग्नि जिसका श्येन बाज पक्षी की आकृति में यज्ञकुण्ड में आधान किया गया है। कक इवाचीयत इति कङ्कचित् (अग्निः)। वह अग्नि जिसका कक-चिमटे की आकृति में यज्ञकुण्ड में आधान किया गया है। यज्ञविशेष में श्येनाकृति आदि के यज्ञकुण्ड बनाये जाते हैं। उनमें अग्निचयन भी तदाकार का होता है।
सिद्धि-श्येनचित् । यहां 'श्येन' कर्म उपपद होने पर चिञ् चयने' (स्वा०उ०) धातु से इस सूत्र से 'क्विप्' प्रत्यय है। शेष कार्य 'सुकृत' (३।२।८९) के समान है।
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