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तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः अन्वय:-करणे सुप्युपपदे यजो धातोणिनिभूते ।
अर्थ:-करणे सुबन्ते उपपदे यज्-धातो: परो णिनि: प्रत्ययो भवति भूतकाले।
उदा०-अग्निष्टोमेन इष्टवानिति अग्निष्टोमयाजी।
आर्यभाषा-अर्थ:-(करणे) करण (सुपि) सुबन्त उपपद होने पर (यज:) यज् (धातो:) धातु से परे (णिनिः) णिनि प्रत्यय होता है (भूते) भूतकाल में।
उदा०-अग्निष्टोमेन इष्टवानिति अग्निष्टोमयाजी । अग्निष्टोम से यज्ञ करनेवाला।
सिद्धि-अग्निष्टोमयाजी। यहां 'अग्निष्टोम' करण सुबन्त उपपद होने पर 'यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु' (भ्वा०उ०) धातु से इस सूत्र से णिनि' प्रत्यय है। अत उपधाया:' (७।२।११६) से यज् धातु को उपधावृद्धि होती है। शेष कार्य उष्णभोजी' के समान है। णिनिः
(२) कर्मणि हनः।८६। प०वि०-कर्मणि ७१ हन: ५।१। अनु०-णिनि:, भूते इति चानुवर्तते। अन्वय:-कर्मण्युपपदे हनो धातोर्णिनिभूते।
अर्थ:-कर्मणि कारके उपपदे हन्-धातो: परो णिनि: प्रत्ययो भवति भूते काले।
उदा०-पितृव्यं हतवानिति पितृव्यघाती। मातुलं हतवानिति मातुलघाती।
आर्यभाषा-अर्थ-(ब्रह्मभ्रूणवृत्रेषु) ब्रह्म, भ्रूण, वृत्र (कमणि) कर्म उपपद होने पर (हन:) हन् (धातोः) धातु से (क्विप्) क्विप् प्रत्यय होता है (भूते) भूतकाल में।
उदा०-पितृव्यं हतवानिति पितृव्यघाती। पितृव्य=चाचा का हत्यारा। मातुलं हतवानिति मातुलघाती। मातुल मामा का हत्यारा।
सिद्धि-पितृव्यघाती। यहां पितृव्य' कर्म उपपद होने पर हन् हिंसागत्योः' (अदा०प०) धातु से इस सूत्र से णिनि' प्रत्यय है। 'हनस्तोऽचिण्णलो:' (७।३।३२) से हन्' के न्' को त्' और हो हो हन्तेणिन्नेषु' (७।३।५४) से हन्' के 'ह' को कुत्व घ्' होता है। 'अत उपधाया:' (७।२।१६६) से हन्' को उपधावृद्धि होती है। शेष कार्य उष्णभोजी' के समान है। मातुल' उपपद होने पर-मातुलघाती।
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