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प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः
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सिद्धि - ( १ ) मामकी इति । यहां मामकी पद सप्तमी विभक्ति के अर्थ में है- मामक्याम् । इसके ईकार की प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृति भाव से रहता है । 'अकः सवर्णे दीर्घः' (६ । १ । १०१ ) से प्राप्त सवर्ण दीर्घ नहीं होता है ।
(२) सोमो गौरी अधिश्रितः । यहां गौरी पद सप्तमी विभक्ति के अर्थ में है - गौर्याम् । इसके ईकार की प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृतिभाव से रहता है । 'ईको यणचिं' (६।१।७७) से प्राप्त (यू) आदेश नहीं होता है।
(३) तनू इति । यहां तनू पद सप्तमी विभक्ति के अर्थ में है - तन्वाम् । इसके ऊकार की प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृतिभाव से रहता है । 'इको यणचि (६ 1१1७७) से प्राप्त यण्- आदेश (व्) नहीं होता है।
घु-संज्ञा
दाधा घ्वदाप् । १६ ।
प०वि० - दाधा: १ । ३ घु १ । १ अदा १ । १ ( लुप्तप्रथमानिर्देश:) स०-दाश्च धौ च ते दाधा: ( इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । दाय् च दैप् चेति दाप् । न दाप् अदाप् ( नञ्तत्पुरुषः ) ।
अन्वयः-अदाप् दाधा घु ।
अर्थ:- दाप्दैप्-भिन्ना दारूपा धारूपौ च धातू घुसंज्ञका भवन्ति । उदा०-दारूपाश्चत्वारो धातवः - डुदाञ् दाने - प्रणिददाति । दाण् दाने प्रणिदास्यति । दो अवखण्डने - प्रणिद्यति । देङ् रक्षणे- प्रणिदयते । धारूपौ द्वौ धातू - डुधाञ् धारणपोषणयो: - प्रणिदधाति । धेट् पाने - प्रणिधयते वत्सो मातरम् ।
आर्यभाषा - अर्थ - (दा-धा:) दा रूप और धा रूप धातुओं की (घु) घु संज्ञा होती है। (अदाप्) दाप् और दैप् धातु को छोड़कर । दा रूप चार धातु हैं - डुदाञ् दाने ( जुहोत्या० उ० ) प्रणिददाति । प्रदान करता है। दाण् दाने (भ्वादि०प०) प्रणिदास्यति । प्रदान करेगा। दो अवखण्डने (दिवा०प०) पणिद्यति । खण्डित करता है । देङ् रक्षणे ( भ्वादि० आ०) । प्रणिदयते। रक्षा करता है। धा रूप दो धातु हैं-डुधाञ् धारणपोषणयोः (जुहोत्या०3०) प्रणिदधाति । धारण-पोषण करता है । धेट् पाने (स्वादि०) प्रणिधयति वत्सो मातरम्। बछड़ा माता का दूध पीता है।
घु
सिद्धि - (१) प्रणिददाति । प्र+नि+ददाति = प्रणिददाति । यहां दा धातु की संज्ञा होने से 'नैर्गदनदपतपदघु ० ' ८ । ४ । १७ ) से नि को णत्व हो जाता है। अन्यत्र भी ऐसा ही समझें ।
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