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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् छन्दसि (७।४।७८) से अभ्यास को इत्व, वश्चभ्रस्ज०' (८।२।३६) से 'श्’ को षत्व और 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से टवर्ग=त को ट होता है।
(२) 'भज सेवायाम् (भ्वा०प०) से-बिभक्ति । पूर्ववत् शप्' का एलु' है। (३) दाति । दा+लट् । दा+शप्+तिम् । दा+o+ति। दाति।
यहां 'डुदाने दाने' (अदा०3०) धातु से बहुल-वचन से 'शप्’ का लुक्’ होगया है। यह धातु जुहोत्यादिगण की है, 'जुहोत्यादिभ्य: श्लुः' (२।४ १७५) से शप्' का श्लु' होना चाहिये था। यह सब छन्द में बहुलवचन की महिमा है।
(४) डुधाञ् धारणपोषणयोः' (जु०उ०) से-धाति । सिच्प्रत्ययस्य
(१६) गातिस्थाघुपाभूभ्यः सिचः परस्मैपदेषु।७७
प०वि०-गाति-स्था-घु-पा-भूभ्य: ५।३ सिच: ६१ परस्मैपदेषु ७।३।
स०-गातिश्च स्थाश्च घुश्च पाश्च भूश्च ते गातिस्थाघुपाभुव:, तेभ्य:-गातिस्थाघुपाभूभ्य: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-लुगित्यनुवर्तते, न श्लुः । अन्वयः-गातिस्थाघुपाभूभ्य: सिचो लुक् परस्मैपदेषु ।
अर्थ:-गातिस्थाघुपाभूभ्यो धातुभ्य उत्तरस्य सिच्-प्रत्ययस्य लुग् भवति, परस्मैपदेषु प्रत्ययेषु परत:।
उदा०-(१) गाति:-अगात् (२) स्था-अस्थात्। (३) घुः- (दा)-अदात् । (धा)-अधात् । (४) पा-अपात्। (५) भू:-अभूत्।
आर्यभाषा-अर्थ- (गातिस्थाघुपाभूभ्य:) गाति, स्था, घु, (दा, धा) पा और भू धातु से परे (सिच:) सिच् प्रत्यय का (लुक्) लोप होता है यदि (परस्मैपदेषु) परस्मैपद प्रत्यय परे हों।
उदा०-(१) गाति-अगात्। वह गया। (२) स्था-अस्थात्। वह ठहरा। (३) घु-(दा)-अदात् । उसने दिया। (धा)-अधात। उसने धारण-पोषण किया। (४) पा-अपात् । उसने पीया। (५) भू-अभूत् । वह था।
सिद्धि-(१) अगात् । इण्+लुङ्। इ+न्ति+ल। गा+सिच्+तिम्। अ+गा+०त् । अगात्।
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