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द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः
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यहां 'हु दानादनयो:, आदाने चेत्यके' (जु०प०) धातु से वर्तमानकाल में 'वर्तमाने लट्' (३1२1१२३) से लट्-प्रत्यय है । 'कर्तरि शप्' (३/२/६८) से 'शप' प्रत्यय है। इस सूत्र से शप् का 'श्लु' (लोप) होता है। 'श्लो' ( ६ |१| २० ) से धातु को द्वित्व, 'कुहोश्चु:' ( ७/४/६२ ) से अभ्यास के ह को झ और 'अभ्यासे चर्च (८/४/५४) से झको ज होता है।
(२) 'त्रिभी भयें' (जु०प०) से - बिभेति । 'णिजिर शौचपोषणयो:' (जु०प०) से-नेनिक्ति ।
(३) प्रत्यय के लोप की 'प्रत्ययस्य लुक्श्लुलुप:' ( १ । १ । ६२ ) से लुक्, श्लु और लुप् ये तीन संज्ञायें होती हैं।
(४) पाणिनीय धातुपाठ के जुहोत्यादिगण में जुहोति (हु) आदि धातु देख लेवें । शपः श्लुः ( बहुलम् ) -
(१८) बहुलं छन्दसि । ७६ ।
प०वि०- बहुलम् १।१ छन्दसि ७ । १ । अनु० - शपः श्लुरिति चानुवर्तते ।
अन्वयः-छन्दसि बहुलं शपः श्लुः । अर्थ:-छन्दसि विषये बहुलं शप्-प्रत्ययस्य श्लुर्भवति ।
उदा०- (१) शप: श्लुः- पूर्णां विवष्टि । जनिमाबिभक्ति । न च शप: श्लुः- दाति प्रियाणि । धाति देवम् ।
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आर्यभाषा-अर्थ- (छन्दसि ) वेदविषय में (बहुलम् ) बहुलता से (शपः) शप्-प्रत्यय का ( श्लुः) श्लु = लोप होता है।
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उदा० - शप् का श्लु- पूर्णां विवष्टि । पूर्णा को चाहता है । जनिमाबिभक्ति । माता-पिता की सेवा करता है। (२) शप् का श्लु नहीं- दाति प्रियाणि । प्रिय वस्तुयें देता है । धाति देवम् । देवता (विद्वान् ) का धारण-पोषण करता है।
सिद्धि - (१) विवष्टि । वश्+लट् । वश्+शप्+तिप् । वश+०+ति । वश्+वश्+ति । वि+वस्+ति। वि+वष्+टि । विवष्टि ।
यहां 'वश् कान्तौ' (अदा०प०) धातु से वर्तमानकाल में 'वर्तमाने लट्' (३ । २ । १२३) से 'लट्' प्रत्यय है । 'कर्तरि शप्' (३ । १ । ६८) से 'शप्' प्रत्यय है। यह अदादिगण की धातु है अत: 'अदिप्रभृतिभ्यः शप: ' (२।४।७२) से 'शप्' का 'लुक' होना चाहिये किन्तु छन्द में बहुलवचन से 'शप्' का 'श्लु' होता है। 'श्लो' (६ 1१1१०) से धातु को द्वित्व, 'बहुलं
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