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प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः
१३ (३) कर्ता । कृ+तृच् । कृ+तृ। कर्तृ+सु । कर्ता। यहां 'डुकृञ् करणे (तना० उ०) धातु से पूर्ववत् तृच् प्रत्यय करने पर सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से कृ धातु के इक् के स्थान में 'अ' गुण होता है और वह उरण रपरः' (१।१।५१) से रपर हो जाता है। इसी प्रकार हृञ् हरणे' (भ्वा० उ०) धातु से हर्ता शब्द सिद्ध होता है।
(४) अचैषीत् । चि+लुङ् । अट्+चि+च्लि+तिप् । अ+चि+सिच्+ति । अ+चि+स्+ईट्+त्। अ+चै+ष्+ई+त्। अचैषीत्। यहां चिञ् चयने धातु से लुङ् (३।२।११०) से लुङ् प्रत्यय, 'च्लि लुङि' (३।१।४३) से चिल प्रत्यय, च्ले: सिच् (३।१।४४) से च्लि के स्थान में सिच् आदेश और सिचि वृद्धि: परस्मैपदेषु' (७।१।१) से चि धातु के इक् को वृद्धि होती है। यहां लुङ्लङ्लुङ्स्वडुदात्त:' (६।४।७१) से अट् आगम और 'अस्तिसिचोऽपक्ते' (७।३।८६) से ईट् आगम होता है। आदेशप्रत्यययो:' (८।३।५९) से षत्व होता है। अचैषीत् उसने चयन किया। इसी प्रकार अनैषीत्, अस्तावीत, अलावीत, अकार्षीत् अहार्षीत् शब्द सिद्ध करें।
गुणवृद्धि-तालिका
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(ड) न घातलोपे ७ १ लापे (उपपदसमासः)
गुणवृद्धि-प्रतिषेधः
(४) न धातुलोप आर्धधातुके।४। प०वि०-न अव्ययपदम् । धातुलोपे ७।१ । आर्धधातुके ७।१।
स०-धातुं लोपयतीति धातुलोप:, तस्मिन् धातुलोपे (उपपदसमास:) धातोरवयवस्य लोप इति धातुलोप: तस्मिन्-धातुलोपे (मध्यपदलोपी समास:)।
अनु०-'इको गुणवृद्धी' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-धातुलोप आर्धधातुक इको गुणवृद्धी न।
अर्थ:-धातुलोपे आर्धधातुके प्रत्यये परत इक: स्थाने गुणवृद्धी न भवत:।
उदा०-गुण:- (इ) चेचियः । (उ) लोलुव: । पोपुवः । वृद्धि:-(ऋ) मरीमृजः।
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