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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अन्वय:-अदो घस्लु लुङ्सनोरार्धधातुकयोः ।
अर्थ:-अद: स्थाने घस्तृ-आदेशो भवति, लुङि सनि चार्धधातुके । विषये।
उदा०-(१) लुङ् -अघसत् । अघसताम् । अघसन्। (२) सन्-जिघत्सति । जिघत्सत:। जिघत्सन्ति ।
आर्यभाषा-अर्थ-(अद:) अद् धातु के स्थान में (घस्तृ) घस्तृ आदेश होता है (लुङ्सनो:) लुङ् और सन् प्रत्यय सम्बन्धी (आर्धधातुके) आर्धधातुक विषय में।
उदा०-(१) लुङ् -अघसत् । उसने खाया। अघसताम् । उन दोनों ने खाया। अघसन् । उन सबने खाया। (२) सन्-जिघत्सति । वह खाना चाहता है। जिघत्सतः। वे दोनों खाना चाहते हैं। जिघत्सन्ति । वे सब खाना चाहते हैं।
सिद्धि-(१) अघसत् । अद्+लुङ् । अद्+घस्तृ+च्लि+लुङ्। अ+घस्+अड्+तिम् । अ+घस्+अ+त् । अघसत् ।
___ यहां 'अद् भक्षणे' (अदा०प०) धातु से भूतकाल में लुङ्' (३।२-११०) से लुङ् प्रत्यय है। लुङ् आर्धधातुक विषय में इस सूत्र से अद् धातु के स्थान में घस्ल आदेश होता है। 'पुषादिद्युतालुदित: परस्मैपदेषु' (३।११५५) से च्लि के स्थान में अङ् आदेश होता है।
(२) जिघत्सति। अद्+सन् । घस्लु+सन् । घस्+स । घस्+घस्+स। घ+घस्+स। घि+घत्+स। झि+घत्+स। जि+घत्+स। जिघत्स+लट् । जिघत्स+शप्+तिम् । जिघत्स+अ+ति। जिघत्सति।
यहां 'अद् भक्षणे' (अदा०प०) धातु से 'धातो: कर्मण: समानकर्तृकादिच्छायां वा' (३।११७) से इच्छा अर्थ में सन् प्रत्यय है। सन् सम्बन्धी आर्धधातुक विषय में इस सूत्र से अद् धातु के स्थान में घस्तृ' आदेश होता है। 'सन्यडों' (६।१।९) से घस् को द्वित्व, 'स: स्यार्धधातुके (७।४।४९) से घस् के सकार को तकार, सन्यतः' (७।४।८९) से अभ्यास के अकार को इकार कुहोश्चुः' (७।४।६२) से अभ्यास के घकार को झकार और 'अभ्यासे चर्च (८।४।५८) से अभ्यास के झकार को जश्' जकार आदेश होता है। जिघत्स' की सनाद्यन्ता धातवः' (३।२।३२) से धातु संज्ञा होकर उससे वर्तमाने लट् (३।२।१२२) से लट् प्रत्यय होता है। अद् (घस्लु)
(४) घञपोश्च ।३८ । प०वि०-घञ्-अपो: ७ ।२। च अव्ययपदम्। स०-घञ् च अप् च तौ घञपौ, तयो:-घञपो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
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