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________________ द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः ४७५ 'स नपुंसकम् (२।४।१७) से नपुंसकलिङ्ग होता है, अत: यहां द्वन्द्व समास के लिङ्ग विधान में इतरेतरयोगद्वन्द्व का ग्रहण समझना चाहिये। द्वन्द्वसमासः (११) पूर्ववदश्ववडवौ।२७। प०वि०-पूर्ववत् अव्ययपदम्, अश्ववडवौ १।२ । षष्ठ्य र्थे (प्रथमा) । स०-पूर्वस्येव पूर्ववत् (तद्धितवृत्ति:)। अश्वश्च वडवा च तौअश्ववडवौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अनु०-लिङ्गं द्वन्द्वे इति चानुवर्तनीयम्। अन्वय:-अश्ववडयोर्द्वन्द्वे पूर्ववत् लिङ्गम् । अर्थ:-अश्ववडयो: शब्दयोर्द्वन्द्व समासे पूर्ववत्-पूर्वपदस्य इव लिङ्गं भवति। पूर्वसूत्रस्यायमपवादः । उदा०-अश्वश्च वडवा च तौ-अश्ववडवौ । आर्यभाषा-अर्थ-(अश्ववडवौ) अश्व और वडवा शब्द के (द्वन्द्वे) द्वन्द्व समास में (पूर्ववत्) पूर्वपद के समान ( लिङ्गम्) लिङ्ग होता है। यह पूर्व सूत्र का अपवाद है। उदा०-अश्वश्च वडवा च तौ अश्ववडवौ । एक घोड़ा और एक घोड़ी दोनों। सिद्धि-अश्ववडवौ । अश्व+सु+वडवा+सु । अश्ववडव+औ। अश्ववडवौ। यहां द्वन्द्व समास में पूर्वपद अश्व पुंलिङ्ग और उत्तरपद वडवा शब्द स्त्रीलिङ्ग है। इस सूत्र से समस्तपद, पूर्वपद अश्व के समान पुंलिङ्ग होता है। विभाषा वृक्षमृगः' (२।४।१२) से पशुओं के द्वन्द्व समास में विकल्प से एकवद्भाव का विधान किया गया है। अश्व और वडवा के द्वन्द्व समास में जब एकवद्भाव नहीं होता तब इतरेतरयोग समास में यह पूर्वपद के समान पुंलिग होता है। द्वन्द्वसमास: (१२) हेमन्तशिशिरावहोरात्रे च छन्दसि।२८। प०वि०-हेमन्त-शिशिरौ १।२ अहो-रात्रे १।२ च अव्ययपदम्, छन्दसि ७१। स०-हेमन्तश्च शिशिरं च तौ हेमन्तशिशिरौ (इतरेतरयोगद्वन्द्व:) । अहश्च रात्रिश्च ते-अहोरात्रे (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अत्र उभयत्र षष्ठ्यर्थे प्रथमा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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