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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
आर्यभाषा - अर्थ - (कृति) जिस कृत्-प्रत्यय के प्रयोग में (उभयप्राप्तौ ) कर्ता और कर्म दोनों में षष्ठी विभक्ति प्राप्त होती है वहां (कर्मणि) कर्म में ही (षष्ठी) षष्ठी विभक्ति होती है, कर्ता में नहीं ।
उदा० - आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपालेन । जो गोपाल नहीं है उसके द्वारा गौओं को दुहना आश्चर्य की बात है। रोचते मे ओदनस्य भोजनं देवदत्तेन । देवदत्त के द्वारा ओद का खाना मुझे प्यारा लगता है। साधु खलु पयसः पानं यज्ञदत्तेन। यज्ञदत्त का दुग्ध का पान अच्छा है।
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सिद्धि-आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपालेन । 'दुह् प्रपूरणे' (अदा०प० ) । दुह्+घञ् । दोह्+अ । दोह+सु । दोहः ।
यहां 'दुह्' धातु से 'भावे' (३ | ३ | १८ ) से भाव अर्थ में कृत्-संज्ञक 'घञ्' प्रत्यय है। यहां कर्ता अगोपाल तथा कर्म 'गौ' दोनों में षष्ठी विभक्ति प्राप्त होती है । प्रकृत सूत्र से 'गौ' कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। 'कर्तृकरणयोस्तृतीया' (२ । ३ 1१८ ) से कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है। यहां 'कर्मणि च' (२।२।१४ ) से षष्ठी समास का प्रतिषेध है । ऐसे ही- ओदनस्य भोजनम्, पयसः पानम् ।
क्तस्य प्रयोगे षष्ठी
(१६) क्तस्य च वर्तमाने । ६७ ।
प०वि०-क्तस्य ६।१ च अव्ययपदम्, वर्तमाने ७ । १ । अनु० - षष्ठी इत्यनुवर्तते ।
अन्वयः - वर्तमाने क्तस्य प्रयोगे च षष्ठी ।
अर्थ:-वर्तमाने काले विहितस्य क्त प्रत्ययान्तस्य शब्दस्य प्रयोगे च षष्ठी विभक्तिर्भवति ।
उदा०-राज्ञां मतो देवदत्तः । राज्ञां बुद्धो यज्ञदत्त: । राज्ञां पूजितो
ब्रह्मदत्तः ।
आर्यभाषा - अर्थ - (वर्तमाने ) वर्तमानकाल में विहित (क्तस्य) क्त प्रत्ययान्त शब्द के प्रयोग में (च) भी (षष्ठी) षष्ठी विभक्ति होता है।
उदा० - राज्ञां मतो देवदत्तः । देवदत्त राजाओं के द्वारा सम्मानित है, अर्थात् वे उसका सम्मान करते हैं । राज्ञां बुद्धो यज्ञदत्तः । यज्ञदत्त राजाओं के द्वारा संज्ञात है, अर्थात् वे उसे भलीभांति जानते हैं । राज्ञां पूजितो ब्रह्मदत्तः । ब्रह्मदत्त राजाओं के द्वारा सत्कृत है, अर्थात् वे उसका सम्मान करते हैं।
सिद्धि - राज्ञां मतो देवदत्तः । 'मनु अवबोधने' (त०आ० ) । मन्+क्त | म+त | मत+सु । मतः ।
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