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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
ह ल।१४। प०वि०-हल् ११।
अर्थ:-ह प्रत्येकं वर्णं पूर्वांश्च वर्णान् उपदिश्यान्ते लकारमितं करोति, अल्, हल्, वल्, रल, झल्, शल् प्रत्याहारार्थम्। __आर्यभाषा-अर्थ-(हल्) ह, इस एक वर्ण का तथा पूर्व वर्णों का भी उपदेश करके अन्त में लकार अनुबन्ध किया है, अल्, हल, वल्, रल्, झल्, शल् प्रत्याहारों के लिये। अल-अलोऽन्त्यात पूर्व उपधा (१।१।६५) हल्-हलोऽनन्तरा: संयोगः (१।११७) वल्-लोपो व्योवलि (६।१।६६) रल्-रलो व्युपधाद्धलादे: संश्च (१।२।२६) झल्-झलो झलि (८।२।२६) शल्-शल इगुपधादनिट: क्स: (३।१।४५) इत्यादि।
एकस्मान् ङञणवटा द्वाभ्यां षस्त्रिभ्य एव कणमा: स्युः। ज्ञेयौ चयौ चतुर्यो रः पञ्चभ्य: शलौ षड्भ्यः ।।।
आर्यभाषा-अर्थ-जिन प्रत्याहार सूत्रों में ङ ज ण व ट अनुबन्ध हैं उनमें एक प्रत्याहार बनता है। जहां ष अनुबन्ध है वहां दो प्रत्याहार बनते हैं। जहां क ण म अनुबन्ध हैं वहां तीन प्रत्याहार बनते हैं। जहां च य अनुबन्ध हैं वहां चार अनुबन्ध बनते हैं। जहां र अनुबन्ध है वहां पाच प्रत्याहार बनते हैं और जहां श, ल अनुबन्ध हैं वहां छ: प्रत्याहार बनते हैं।
प्रत्याहार सूत्र अ इ उ ण
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प्रत्याहार
सख्या
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