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प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः ख फ छ ठ थ च ट त व् ।११। प०वि०-ख फ छ ठ थ च ट त व् १।१।
अर्थ:-ख, फ, छ, ठ, थं, च, ट, त इत्येतान् वर्णान् उपदिश्यान्ते वकारमितं करोति, छत् प्रत्याहारार्थम्।
आर्यभाषा-अर्थ-खि फ छ ठ थ च ट त व्) ख, फ, छ, ठ, थ, च, ट, त इन आठ वर्णों का उपदेश करके अन्त में वकार अनुबन्ध किया है, छव् प्रत्याहार के लिये। छव्-नश्छव्यप्रशान् (८।३।७)
विशेष-यहां ख, फ का ग्रहण उत्तर प्रत्याहारों के लिये है। यहां छ वर्ण से प्रत्याहार ग्रहण किया गया है।
क प य ।१२। प०वि०- क प य १।१।।
अर्थ:-क, प इत्येतौ वर्णी पूर्वांश्च वर्णान् उपदिश्यान्ते यकारमितं करोति, यय, मय, झय, खय् प्रत्याहारार्थम्।
आर्यभाषा-अर्थ-(क प य्) क, प इन दो वर्णों का तथा पूर्व वर्णों का उपदेश करके अन्त में यकार अनुबन्ध किया है। यय्, मय, झय, खय् प्रत्याहारों के लिये। यय्-अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण: (८।४।५८) मय्-मय उस्रो वो वा (८।३।३३) झय्-झयो होऽन्यतरस्याम् (८।४।६२) खय्-पुम: खय्यम्परे (८।३।६) इत्यादि।
विशेष-कात्यायनमुनिप्रणीत वार्तिकसूत्रों में एक चम् प्रत्याहार भी मिलता है। चय्-चयो द्वितीया: शरि पौष्करसादे: (अ० ८।४।५८)
श ष स ।१३। प०वि०-श ष स र ११ ।
अर्थ:-श ष स इत्येतान् पूर्वांश्च वर्णान् उपदिश्यान्ते रेफमितं करोति, यर्, झर्, खर्, चर्, शर् प्रत्याहारार्थम् ।
आर्यभाषा-अर्थ-(श ष स र) श ष स इन तीन वर्षों का तथा पूर्व वर्गों का भी उपदेश करके अन्त में रेफ अनुबन्ध किया है, यर्, झर, खर, चर् शर् प्रत्याहारों के लिये। यर्-यरोऽनुनासिकेनुनासिको वा (८।४।४५) झर्-झरो झरि सवर्णे (८।४।६५) खर्-खरि च (८।४।५५) चर्-अभ्यासे चर् च (८।४।५४) शर्-शपूर्वा: खय: (७।४।६१) इत्यादि।
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