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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अथ प्रत्याहारप्रकरणम्
अ इ उ ण् ।१। प०वि०-अ इ उ ण् १।१।।
अर्थ-अ, इ, उ इत्येतान् वर्णान् उपदिश्यान्ते णकारमितं करोति, अण् प्रत्याहारार्थम् ।
____ आर्यभाषा-अर्थ-(अ इ उ ण्) अ, इ, उ इन तीन वर्गों का उपदेश करके अन्त में णकार अनुबन्ध किया है, 'अण्' प्रत्याहार के लिये। 'अण्' कहने से उरण रपरः' (अ० ११११५१) इत्यादि स्थलों पर अ, इ, उ इन तीन वर्णों का ग्रहण किया जाता है।
यहां इण्' आदि प्रत्याहार भी सम्भव है, किन्तु पाणिनि मुनि को अपने शब्दानुशासन में 'अण्' प्रत्याहार की ही आवश्यकता है।
ऋ लृ क्।२। प०वि०-ऋ तृ क् १।१।
अर्थ-ऋतृ इत्येतौ वर्णी पूर्वाश्च वर्णान् उपदिश्यान्ते ककारमितं .. करोति, अक्, इक्, उक् प्रत्याहारार्थम्।
. आर्यभाषा-अर्थ-(ऋल क्) ऋ, लू इन दो वर्गों का तथा पूर्व वर्गों का भी उपदेश करके अन्त में ककार अनुबन्ध किया गया है, अक्, इक्, उक् इन तीन प्रत्याहारों के लिये। अक्-'अक: सवर्णे दीर्घः' (६।१।१०१)। इक्-'इको गुणवृद्धी' (१।१।३१)। उक्-उगितश्च (४।१।६) इत्यादि ।
ए ओ ङ्।३। प०वि०-ए ओ ङ् ११
अर्थ-ए ओ इत्येतौ वर्णावुपदिश्यान्ते डकारमितं करोति, एङ् प्रत्याहारार्थम् ।
आर्यभाषा-अर्थ-(ए ओ ङ्) ए ओ इन दो वर्णों का उपदेश करके अन्त में डकार अनुबन्ध किया है, एङ् प्रत्याहार के लिये। एङ्-अदेङ् गुण: (१।१।२) इत्यादि।
ऐ औ च्।४। प०वि०-ऐ औच । ११
अर्थ:-ऐ, औ इत्येतौ वर्णी पूर्वांश्च वर्णान् उपदिश्यान्ते चकारमितं करोति, अच् इच्, एच, ऐच् प्रत्याहारार्थम्।
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