________________
३८६
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (२) चित्रगुः । चित्र+जस्+गो+जस्। चित्रगो। चित्रगु+सु। चित्रगुः ।
यहां विशेषवाची चित्र' पद का पूर्व-प्रयोग किया गया है। गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य' (१।२।४८) से गो-शब्द को हस्व होता है। ऐसे ही शबलगुः। निष्ठान्तम्
(७) निष्ठा।३६। वि०-निष्ठा ११ अनु०-पूर्वम्, बहुव्रीहौ इति चानुवर्तते । अन्वय:-बहुव्रीहौ निष्ठा पूर्वम् । अर्थ:-बहुव्रीहौ समासे निष्ठान्तं पदं पूर्व प्रयोक्तव्यम्।
उदा०-कृत: कटो येन स कृतकट:। भिक्षिता भिक्षा येन स भिक्षितभिक्ष: । अवमुक्ता उपानद् येन स अवमुक्तोपानत्क: । आहूत: सुब्रह्मण्यं येन स आहूतसुब्रह्मण्यः ।
आर्यभाषा-अर्थ-(बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (निष्ठा) निष्ठान्त पद का (पूर्वम्) पहले प्रयोग करना चाहिये।
उदा०-कृत: कटो येन स कृतकटः। वह जिसने चटाई बनाली है। भिक्षिता भिक्षा येन स भिक्षितभिक्षः। वह जिसने भीख मांगली है। अवमुक्ता उपानद् येन स अवमुक्तोपानत्क: । वह जिसने जूता उतार दिया है। आहूतं सुब्रह्मण्यं येन स आहूतसुब्रह्मण्यः । वह जिसने सुब्रह्मण्य (सौभाग्य) को आमन्त्रिम कर लिया है अथवा वह जिसने सुब्रह्मण्या ऋचा से होम कर लिया है।
सिद्धि-कृत+सु+कट+सु। कृतकट+सु। कृतकटः ।
यहां कृत पद निष्ठा-प्रत्ययान्त (कृ+क्त) है, अत: उसका बहुव्रीहि समास में पहले प्रयोग किया गया है। क्तक्तवतू निष्ठा' (१1१।२६) से 'क्त' प्रत्यय की निष्ठा संज्ञा है। ऐसे ही-भिक्षितभिक्ष:' आदि। निष्ठान्तं वा
वाऽऽहिताग्न्यादिषु ।३७। प०वि०-वा अव्ययम्, अहिताग्नि-आदिषु ७।३ ।
स०-आहिताग्निरादिर्येषां ते-आहिताग्न्यादयः, तेषु-आहिताग्न्यादिषु (बहुव्रीहि:)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org